मिस्टर मीडिया : मीडिया दुनिया के कड़वे सच
मिस्टर मीडिया : मीडिया दुनिया के कड़वे सच
डॉ. सुधीर सक्सेना
बात सच से शुरू करूंगा मेरे तईं सच
के साथ द्रोह सबसे बड़ा द्रोह है
यदि कोई कहता है कि भारत को आजादी
सन 47 में नहीं, सन 2014 में मिली,
याकि गांधी को दुनिया ने एटनबरो की फिल्म से जाना
आंदोलनकारी अन्नदाताओं को खालिस्तानी
कहना भी सच से द्रोह है।
यह लोगों को भरमाना/
बरगलाना है और इतिहास के सच को झुठलाना है।
गांधी अकेले महामानव है, जो विश्व के ज्ञात इतहास में ईश्वर सत्य है के विपरीत सत्य ही ईश्वर है कहते हैं। वह यहां तक कहते हैं कि मैं स्वराज को छोड़ सकता हूं, लेकिन सत्य को नहीं। गांधी क्या है? सत्य की लाठी से धरती को मुक्ति की ओर ठेलती सर्वथा विरल शख्सियत। विश्वगुरू कौन है मैं नहीं जानता, लेकिन गांधी विश्वमानव हैं। उनमें सत्य का गुरूत्व है, सत्य का ताप है, सत्य का निरहंकार वैभव है। वह स्वयंभू महात्मा नहीं है, बल्कि विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संबोधन से बने महात्मा हैं। वह भारत राष्ट्र के पिता हैं और जो भारतीय अपने इस पिता पर लांछन लगाता है और कालिख पोतता है, सोचिए कि वह क्या है और क्या वह भारत की संतान कहलाने का अधिकारी है?
अब इस किताब पर आएं। शुरूआत अपनी बात से। अंधी सुरंग यानी बोगदे से चीखें।
राजेश की किताब का शीर्षक ही है : मीडिया की दुनिया के कड़वे सच। जब आप सच कहते हैं तो आपको कड़वा लिखने की जरूरत नहीं। सच किसी विशेषण का मोहताज नहीं है। ट्रुथ इज ट्रुथ एण्ड ट्रुथ प्रीविएल्स, सत्यमेव जयते। हमारे यहां दीक्षांत में कहते हैं सत्यंवद, धर्मंचर। हम यह भी कहते हैं- सत्यंब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मुझे लगता है कि जब आप सत्य को ही व्यक्त करते हैं, तो उसे कड़वे और मीठे में बांधा या वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। सच बेशक प्राय: वेधक, दाहक और कठोर हुआ करता है, बहुधा अवाच्य भी होता है, लेकिन सच सुखद, प्रिय और प्रीतिकर भी होता है। क्या सिर्फ कड़वा सच को बयां करना ही आपका मकसद होना चाहिए। खैर अपनी बात में अंधे सुरंग यानी बोगदे के चीखें में राजेश कहते हैं कि पत्रकारिता के लिए स्तंभ यानी मिस्टर मीडिया एक पैनी आंख की तरह रहा। स्तंभ को पैनी आंख कहना बड़ा मानीखेज है और वह हमें किताब को परखने का कीमती सूत्र थमाता है। आंख से यहां तात्पर्य मात्र एक इंद्रिय से नहीं, वरन दृष्टि से है, जिसे महाकवि फिराक गोरखपुरी बीनाई की संज्ञा देते हैं। यहां आंखों का तात्पर्य खुली आंखों से है। मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं की भंगिमा से नहीं। बंद आंखों और खुली आंखों में बड़ा अंतर होता है। यह युगयुगीन सच है। घनानंद की पंक्तियां हैं : आंखें खोलि देख्यौ तो पै घन है, न घनानंद। बेगि बूंद आंसुन की छाई है दृगनि में। तो सच-पैनी आंख का सच तो और भी अप्रत्याशित हो सकता है। आप सिर भी धुन सकते हैं और उत्तेजित भी हो सकते हैं। बहरहाल, यह तय है कि यदि आप पैनी आंखों से चीजों, घटनाओं और प्रवृत्तियों को देखते हैं, तो आपका लिखा समकाल की पत्रकारिता का प्रामाणिक दस्तावेज बन सकता है। प्रश्न उठता है कि क्या राजेश बादल इसमें कामयाब हुए हैं? क्या 160 स्तंभों की 351 पेजों की उनकी यह किताब एक दस्तावेज बन सकी है? इसकी पड़ताल के लिए किताब के सफों से गुजरना जरूर है। अपने शुरूआती सफों में ही राजेश व्यवस्था के क्रूर और असंवेदनशील चेहरे की शिनाख्त करते हैं। वह रंजन झा, गोपाल बिष्ट, संजीव सिन्हा, विक्रमसिंह बिष्ट, नवीन निश्चल, विजय सिंह, संदीप शर्मा, संदीप कोठारी, गौरी लंकेश, अक्षय सिंह जैसी प्रतिभाओं को याद करते हैं, जो इस पुरजोखिम वक्त में फर्ज अदायगी करते हुए मारे गये। लेकिन इस अकृतज्ञ बिरादरी में जिन्हें भुला दिया है। यह काबिलेदीद, काबिलेजिक्र और काबिलेफख्र है कि वह आंखों में आंखें डालकर प्रश्न करते हैं। प्रतिप्रश्न करते हैं। लानत-मलामत करते हैं। और नसीहतें देते हैं। बाजवक्त वह जिरह करते नजर आते हैं और बाजवक्त, क्या ज्यादातर जिरह की भूमिका में चिरफाड़ करते हैं। राजेश के पास बहुत संवेदनशील कविर्मन है, लेकिन चिरफाड़ वह बहुत निर्ममता के साथ करते हैं, जो जरूरी है और वांछनीय भी। तकाजा और डिमांड भी।
अभी-अभी जुम्मा-जुम्मा आठ रोज से थोड़ा ही ज्यादा वक्त हुआ है, जब हमने एक्जिट पोलों का तमाशा देखा है। भौंड़ा और निर्ल्लज्ज तमाशा। हमने देखा है कि जिस तरह मीडिया हाउसों में और चैनलों में मुहरबंद लिफाफे पहुंचाये गये और बेशर्मी से उन्हें बिना जांचे परोसा गया। राजेश ने इस खतरे को साढ़े पांच साल पहले बूझ लिया था। उनके 12.12.2018 के कॉलम का कैप्शन है – एक्जिट पोल का खेल।
इसी के फौरन बाद के कॉलम का शीर्षक है- उच्चारण पर किसका ध्यान? बड़ा दिलचस्प कॉलम है। इसे पढ़िये और जानिये कि हमारे बोलचाल और प्रसारणों में नुक्स का दायरा कितना बड़ा है? यह ही नहीं, राजेश के मिस्टर मीडिया के अनेक स्तंभ ऐसे हैं, जो विस्तार मांगते हैं। अर्थगांभीर्य के बावजूद बहुधा लगता है कि बहुत कुछ है, जो छूट गया हैया कुछ और कहा जाना चाहिए था। कितने निष्पक्ष हैं हम में राजेश कंटेंट इज द किंग की डींग हांकने वालों को कठघरे में खड़ा करते हैं। हेट-स्पीच का जहरीला दौर हम देख रहे हैं। राजेश पांच साल से भी ज्यादा पहले इसे इंगित कर चुके थे। एक जगह वह कहते हैं – उत्तर प्रदेश आदम युग में जी रहा है। गौर करें- आदिम नहीं, आदम। शहीदों की कुर्बानियों को, भूल जाने वाली कौम को आड़े हाथों लेते हुए वह पूछते हैं – नई नस्लों को जानकारी देना क्या हमारा फर्ज नहीं बनता? यकीनन, वह जब वह यह कहते है तो इस ओर संकेत कर रहे होते हैं कि अतीत को न जानना अथवा अतीत की गलत और भ्रामक जामकारी अनेक विकारों और संकटों की जननी है। यह अकारण नहीं है कि मध्ययुगीन इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है और मुगलवंश को लुटेरा बताया या विलोपित किया जा रहा है और गांधी-नेहरू के ईमेज को निर्ल्लजतापूर्वक विषवमन किया जा रहा है तथा गांधी को विश्व के जानने का श्रेय ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी कर ब्रिटिश सिने निर्माता एटनबरो को दिया जा रहा है। क्या इसे किसी के बुद्धि-लब्ध का पैमाना माना जाये? राजेश तो मानते ही हैं कि हम बालिग हुए हैं, जिम्मेदार नहीं। वह यह भी मानते हैं कि गुन भी हिराने हैं और गुनगाहक भी। उसे तकलीफ होती है और तड़प भी, जब कोई संजय बारू विश्व के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का उपहास उड़ाता है। वह प्रसारण-संस्कारों के लुप्त होते जाने से भी आहत होते हैं और मेलविल डिमेलो, देवकीनंदन पांडेय, अशोक वाजपेयी, इंदुवाही, विनोद कश्यप, जसदेव सिंह और अमीन सयानी जैसी उन प्रतिभाओं को याद करता है, जिन्होंने भाषा और निदोष उच्चारण के मानक रचे थे। राजेश स्वयं मीडियाकर्मी हैं। प्रतिष्ठित और नामचीन मीडियाकर्मी। जब वह मीडिया के खोट और खुरंट की बात करते हैं तो अपनी बिरादरी की परते उघाड़ रहे होते हैं। वह सच को बयां करने में संकोच नहीं करते कि चुनाव आते हैं तो खबरचियों की बांछें क्यों खिल जाती हैं? सन 2019 में चुनाव में लेह-प्रसंग के बहाने वह पत्रकारिता में नकद नारायण की सत्ता को रेखांकित करते हैं। वह पेड न्यूज की बात करते हैं और यह पाठी भी कि भ्रष्ट आचरण से कमाये पैसे से बचना ही सरोकारवाली पत्रकारिता है। वह चुनाव आयोग, जो अब केचुआ के तौर पर ज्यादा जाना जाता है, को चेतावनी देने से नहीं चूकते कि मीडिया को मत बांटिये और लोकतंत्र से डरिये चुनाव आयोग?
मैंने अभी जिस संदर्भ की बात की, वह लेख मई,सन 2019 का है। आज से पांच साल पहले का। उनका 5 जून, 19 का लेख है : अब भी कुछ शेष है। यह वाक्य वक्तव्य नहीं है, बल्कि प्रश्न है। क्या अब भी कुछ शेष है? इसमें मीडिया की मूर्खता की बानगी है, लैंगिक रिश्तों में आनंद की वृत्ति और टीआरपी के लिए कुछ भी अनापशनाप कर गुजरने की हिमायत का जिक्र है। इन तीनों का योग मणिकांचन नहीं, बल्कि कोढ़ में खाज का उदाहरण है। अक्टूबर, 18 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह सभी राज्यों को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश देते हैं, लेकिन औरों की तो छोड़िये, उनके निर्देशों का डबल इंजन की सरकारें भी पालन नहीं करतीं।
यही वे संदर्भ हैं, जो मिस्टर मीडिया को दस्तावेज के खाने में ले जाते हैं। उन्नाव कांड के बहाने वह बेहमई कांड को याद करते हैं। वह पाकिस्तान फोबिया का जिक्र करते हैं। पी. चिदंबरम की गिरफ्तारी के बहाने वह मीडिया के भदेस का उल्लेख करते हैं। निंदा और प्रशंसा में वह वैचारिकी या दलीय निष्ठा को आड़े नहीं आने देते। निजी सैटेलाइट चैनलों के लिए द्वार उघाड़ने के वास्ते वह सुषमा स्वराज को सराहते हैं, तो असमहति की बेजोड़ कला के लिए अरुण जेटली की तारीफ करते हैं। किताब का पेज 90 पलटिये और जानिये कि राजधर्म की सीख की नाजुक घड़ी में कैसे जेटली अटलजी के समक्ष नरेन्द्र मोदी का कवच बने थे और उन पर आंच नहीं आने दी थी। ऐसे ही भारत में निजी चैनलों को डीटीएच की अनुमति में भी जेटली की निर्णायक भूमिका थी।
राजेश की पूरी की पूरी किताब दो खंभों पर टिकी हुई है। पहला खंभा है निकष और दूसरा खंभा है निष्कर्ष। यह संकलन निकष और निष्कर्ष के बीच की क्रमिक गाथा है। वह फतवे देने से बचते हैं, लेकिन निष्कर्ष सुनाने से नहीं हिचकते। वह उस तुला न्याय में यकीन नहीं करते, जिसमें बांटों के हिसाब से पलड़ा नहीं झुकता है, बल्कि वह बांटों को परखते हैं कि वे असल हैं या नहीं। यही फिर सत्य की अहमियत नजर आती है। झूठ पर बतियाने वाले इस जग में सच कहने का उनका हौसला देखते ही बनता है और गांधी में उनके यकीन की तस्दीक करता है। इसी सच के बूते वह पत्रकारद्वय राजदीप सरदेसाई और अजीत अंजुम के सम्मुख प्रश्नचिह्न लगाते हैं। वह स्पष्ट कहते हैं कि धनार्जन में लिप्त अमीर की तुलना शिखरराज नेता से नहीं करनी चाहिए। मुहावरे में कहें तो पत्रकार को सत्यान्वेषी और खोजी तो होना चाहिए, लेकिन कवरबिज्जू नहीं। पत्रकारिता में वह तहकीकात और क्रॉसचेक के साथ जवाबदेही को रेखांकित करते हैं। वह ऐसे संकरों की हिमायत नहीं करते, जो एंकर कम, पार्टी प्रवक्ता ज्यादा है अथवा बहस में प्रहसन तो आम बात है, लेकिन पत्रकारिता भी प्रहसन से कहां बच सकी है? हैदराबाद में मुठभेड़ के बहाने वह मीडिकर्मियों को कठघरे में खड़ा कर देते हैं कि आप आरोपी को मुजरिम कैसे मान सकते हैं और निहत्थों पर गोलियां दागने को मुठभेड़ कैसे?
पूरे पूरे 198 साल हो गये। उसमें 15 दिन और घटा दीजिए। 30 मई, 1826 को कलकत्ते से उद्दंत मार्तण्ड निकला था। इन दो सौ सालों में कहां से चले थे और कहां पहुंच गए। यह आत्मावलोकन – इंट्रोस्पेक्शन- की वेला है। मीडिया को अपनी मानसिक तरंगे पहचाननी होंगी, देखना होगा कि दिल की धड़कनें कब तेज- कम धीमी होती हैं और उसकी नब्ज कब और क्यों डूबने लगती है? ये राजेश जी की सोच के सार हैं, निष्कर्ष हैं। उन्हें प्रिंट और इलेक्टॉनिक ही नहीं, सोशल मीडिया की भी चिंता है, जिन्हें चार मंत्रालय- आईबी, आईटी, विधि और गृह मंत्रालय नियंत्रित करने की फिराक में हैं। उन्हें विवेक के संकुचन और भाषा की टूट-फूट की भी चिंता है। भाषा को लेकर वह बहुत सजग हैं। यहीं मुझे धूमिल की पंक्तियां याद आती हैं- कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। और मेरा दृढ़ मत है कि पत्रकारिता भी भाषा होने की तमीज है और यह तमीज कमानी पड़ती है। सत्ता के तुर्श तेवरों के मद्देनजर आज की तारीख में पत्रकारिता इक आग का दरिया है, जिसमें आपको फरेब, प्रलोभन और भंवरों से बचते-बचाते तैर के पार जाना है। जमाना खराब है और आपको मायालोक, कहें तो तिलिस्म और ऐयारी से बचते बचाते जाना है। इस किताब में राजेश ने बेतरह याद किया है। एकबारगी क्षोभ और हताशा में वह कहते हैं : अब हमें गांधी के सत्याग्रही गीत गाने का अधिकार नहीं रहा। – ऐसा क्यो? क्या हम पढ़ना खो चुके हैं। विचार नहीं। किताब में गांधी पर बहुत कुछ है। क्योंकि जहां सच होगा वहां गांधी होंगे। निर्विवादत:। निर्विकल्प कि उनका कोई विकल्प नहीं है। मैं राजेश की बात से इत्तेफाक रखता हूं कि महात्मा गांधी विलक्षण और बेजोड़ संपादक थे। एक बेहतरीन रिपोर्टर। पूर्णकालिक पत्रकार भी। सत्य और सत्ता की जंग में सत्य उनकी टेक था, आयुध भी। उन्होंने सच की राह पकड़ी। सनसनी की नहीं। किताब में महात्मा का स्मरण तो कई बार है, लेकिन 115वां स्तंभ है महात्मा की याद। इसके बाद एक और आकार में थोड़ा बड़ा स्तंभ है, पुरखे को भूल गयें। इन्हें पढ़िये और जानियें कि बापू क्यों युग पुरूष थे और हमें क्यों उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए?
राजेश कविर्मन हैं। कविताओं के बारे में मैं नहीं जानता, लेकिन उन्होंने तीन कहानियां भी लिखी हैं। उनके लेखन में ऐंद्रिकता भी है। अदम गोंडवी की गजलों के वे मुरीद हैं। दुष्यंत कुमार उनके प्रिय कवि। उनकी गजलों को उन्होंने खूब कोट किया है। राजेश की शख्सियत को समझने के लिए अभिषेक मेहरोत्रा से उनकी बातचीत उपयोगी है। इस किताब में मानीखेज बहुत कुछ है। स्पेस का संकट है किन्तु राजेश कम स्पेस में बड़ी बात कह जाते हैं। मुद्रित और चाक्षुष दोनों से उनका नाता है। आधुनिक भारत और हिन्दी के श्रेष्ठतम संपादक राजेंद्र माथुर उनके गुरू रहे हैं। उन्होंने उन्हें फिर फिर याद किया है और अभय छजलानी, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, कमल दीक्षित, विनोद दुआ और वेदप्रताप वैदिक आदि की यादें भी हैं। वहां पीटीआई, द वायर, संसद टीवी, एडीटर्ड गिल्ड, एनडीटीवी आदि के किस्से भी हैं। वह चलती चक्की देखकर कबीराई अंदाज में बाज वक्त रोते भले ही दिखें, मगर हताश नहीं हैं कि चुनौतियां हैं तो रास्ता भी होगा। पत्रकारिता फर्राटा दौड़ नहीं, हर्डल रेस है। उसकी स्पष्ट मान्यता है कि सरकारी पैसे पर जियेंगे तो निष्पाप पत्रकारिता नहीं करेंगे। वह चाहते हैं कि धर्म के नाम पर पाखंड परोसना बंद हो। राजेश मेरे समवयस्क हैं। वह अच्छा लिखते हैं। इसलिए उनसे इश्क है। वाकई अच्छा लिखते हैं, लिहाजा दोस्ताना रश्क भी है। दुआ है कि उनकी कलम पैनी हो और जियादा चले। चले और खूब चले। बस, उन्हें अहंकार न व्यापे।
समापन इस मौजूं शेर के साथ कि
“ये वक़्त किस की रऊनत पे खाक डाल गया, ये कौन बोल रहा था खुदा के लहजे में।”
तो मानुष लहजे में मनुष्य की बाते जारी रहे। राजेश भाई को सलाम और शुभकामनाएं।