संकट में हैं ‘कुदरत के रखवाले’
सत्यप्रकाश पांडेय
प्रकृति ने अपने बनाए हर जीव को इतना सक्षम बनाया है कि वो अपना निर्वाह कर सके. इंसान बिना हाथ पैर के अपाहिज है मगर ऐसे जीव भी हैं जो केवल रेंग सकते हैं. पक्षी जो कमजोर हैं उन्हें पंख दिए हैं ताकि वो खतरे से बचने के लिए उड़ सकें, और इसी उड़ान की मदद से अपना भोजन ढूंढ सकें.
गिद्धों को इतना बदसूरत माना जाता है कि बच्चों के लिए दिखाए जाने वाले कार्टून में भी हमेशा इनका नकारात्मक रूप ही दिखता है. गिद्ध होते भी तो कितने हैं! मगर इन सब से अलग जो अहम बात है वो ये कि इन्हें भी कुदरत ने उसी तरह गढ़ा है जैसे कि हम इंसानों को और इन्हें भी जीने का उतना ही हक़ है जितना कि हमें. आपको बता दें कि ये बदसूरत दिखने वाला ये पक्षी ईको सिस्टम के लिए बेहद जरूरी है. एक तरह से प्रकृति ने जो ये चक्र बनाया है उसमें साफ सफाई का काम इन गिद्धों का ही है. यही गिद्ध हैं जो फसल बर्बाद करने वाले कीड़ों से ले कर जहर और बीमारी फैलाने वाले सड़े हुए शवों को अपना भोजन बना कर उनका सफाया करते हैं.
उड़ने वाले पक्षियों में गिद्धों की उड़ान सबसे ऊंची होती है. इसकी सबसे ऊंची उड़ान को रूपेल्स वेंचर ने 1973 में आइवरी कोस्ट में रिकार्ड किया था, जिसकी ऊंचाई 37,000 फीट थी. ये किसी एवरेस्ट (29,029 फीट) की ऊंचाई से काफी अधिक है. इतनी ऊंचाई पर दूसरे पक्षी ऑक्सीजन की कमी के कारन दम तोड़ देते हैं. गिद्दों को लेकर हुए अध्ययनों से उनके हीमोग्लोबिन और ह्दय की संरचना से संबंधित कई ऐसी विशेषताओं के बारे में पता चला, जिनके चलते वो असाधारण वातावरण में भी सांस ले सकते हैं. गिद्ध भोजन की तलाश में एक बड़े इलाके पर नजर डालने के लिए अक्सर ऊंची उड़ान भरते हैं.
पिछले एक दशक के दौरान भारत, नेपाल और पाकिस्तान में गिद्धों की तादात में 95 प्रतिशत तक की कमी आई है और ऐसे ही रुझान पूरे अफ्रीका में देखे गए हैं. असल में इनके विलुप्त होने का एक मुख्य मुख्य कारण जो सामने आया है वो है पशुओं को दी जाने वाली विषैली दवा. इन दवाओं के कारण गिद्धों की प्रजनन क्षमता समाप्त होती जा रही है जिसके चलते इनकी संख्या में भरी गिरावट देखी जा रही है. ये पक्षी जिन शवों को खाते हैं, उसके द्वारा इनके शरीर में जहर पहुंच रहा है.
सबसे पहले पारसी समुदाय के लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया कि गिद्धों की संख्या में भरी कमी आ रही है. असल में पारसी समुदाय पिछले करीब तीन हजार वर्षों से मरणोपरांत शवों के दोखमेनाशिनी नाम से अंतिम संस्कार की परंपरा को निभाते आ रहा है. इस परंपरा को निभाने के लिए ये लोग पूर्णत: गिद्धों पर ही निर्भर होते हैं. क्योंकि गिद्ध ही मृतक के शव को अपना भोजन बनाते हैं. अब जब गिद्ध ही नहीं रहेंगे तो फिर भला इनके संस्कार को कैसे पूरा किया जाएगा.
असल में गिद्ध मुर्दाखोर होते हैं, लिहाजा ये पर्यावरण को संतुलित रखने में अपनी भूमिका निभाते हैं. गिद्धों का इस तरह से कम होना चिंता का विषय है. ये अच्छी बात है कि इनकी सुरक्षा के प्रति जागरूक करने और इनका महत्व समझाने के लिए हर वर्ष सितम्बर के पहले शनिवार को अंतरराष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस मनाया जाता है.
O अगर ‘गिद्ध’ खत्म हुए तो खतरे में पड़ जाएगी ज़िंदगी
कथा-कहानियों में मृत्यु के प्रतीक माने जाने वाले गिद्ध आज खुद मौत के मुंह में खड़े हैं, उन्हें संरक्षण की दरकार है । ख़ुशी इस बात की है कि Egyptian vulture छत्तीसगढ़ राज्य के विभिन्न हिस्सों में अब दिखाई देते है लेकिन संख्या नहीं के बराबर है। पिछले तीन-चार साल से बिलासपुर जिले की सरहद में अलग-अलग जगहों पर दिखाई पड़े सफ़ेद गिद्ध [Egyptian vulture] वैसे तो अपने लौट आने का संदेश दे चुके हैं लेकिन उनके पुनरुत्थान के लिए फौरन कोई कदम नहीं उठाया जाता तो ये पुनः विलुप्त होने से महज एक कदम दूर हैं।
सफ़ेद गिद्ध अपने अन्य प्रजाति के पक्षियों की तरह मुख्यतः लाशों का ही सेवन करता है लेकिन यह अवसरवादी भी होता है और छोटे पक्षी, स्तनपायी और सरीसृप का शिकार कर लेता है। अन्य पक्षियों के अण्डे भी यह खा लेता है और यदि अण्डे बड़े होते हैं तो यह चोंच में छोटा पत्थर फँसा कर अण्डे पर मारकर तोड़ लेता है। दुनिया के अन्य इलाकों में यह चट्टानी पहाड़ियों के छिद्रों में अपना घोंसला बनाता है लेकिन भारत में इसको ऊँचे पेड़ों पर, ऊँची इमारतों की खिड़कियों के छज्जों पर और बिजली के खम्बों पर घोंसला बनाते देखा गया है।
यह जाति आज से कुछ साल पहले अपने पूरे क्षेत्र में पर्याप्त आबादी में पायी जाती थी। 1990 के दशक में इस जाति का 40% प्रति वर्ष की दर से 99% पतन हो गया। इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक (diclofenac) है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको सफ़ेद गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है। अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम meloxicam आ गई है और यह गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं।
गिद्धों को प्रकृति का सफाईकर्मी कहा जाता है। वे बड़ी तेजी और सफाई से मृत जानवर की देह को सफाचट कर जाते हैं और इस तरह वे मरे हुए जानवर की लाश में रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और दूसरे सूक्ष्म जीवों को पनपने नहीं देते। लेकिन गिद्धों के न होने से टीबी, एंथ्रेक्स, खुर पका-मुंह पका जैसे रोगों के फैलने की काफी आशंका रहती है। इसके अलावा चूहे और आवारा कुत्तों जैसे दूसरे जीवों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन्होंने बीमारियों के वाहक के रूप में इन्हें फैलाने का काम किया। आंकड़े बताते हैं कि जिस समय गिद्धों की संख्या में कमी आई उसी समय कुत्तों की संख्या 55 लाख तक हो गई। इसी दौरान (1992-2006) देश भर में कुत्तों के काटने से रैबीज की वजह से 47,300 लोगों की मौत हुई।
कहते हैं कि मवेशियों के इस्तेमाल के लिए डिक्लोफिनेक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन अब भी ऐसी दवाएं इस्तेमाल की जा रही हैं जो गिद्धों के लिए जहरीली हैं। जल्द से जल्द इन पर भी रोक लगाने की जरूरत है। इनमें से कुछ हैं एसीक्लो फेनाक, कारप्रोफेन, फ्लुनिक्सिन, केटोप्रोफेन। हालांकि, दवा कंपनियां इन पर प्रतिबंध का जोरशोर से विरोध करेंगी जैसा डिक्लोफिनेक के समय किया था। लेकिन अगर प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाने से बचाना है तो देर सबेर ही सही यह कदम उठाना होगा।
इधर काले गिद्धों के संरक्षण के लिए अचानकमार टाइगर रिजर्व के औरापानी में सरकारी प्रयास जारी है लेकिन अच्छी-खासी संख्या में लौटकर आये सफ़ेद गिद्धों पर किसी की नज़र नहीं है। कोपरा से लेकर कोटा तक आसमान में उड़ते सफ़ेद गिद्ध फिलहाल तो भगवान भरोसे हैं, देखते हैं इन्हे बचाने के लिए कहीं से कोई गिद्ध नज़र सामने आती है या फिर ये इंसानी क्रूरता के शिकार बन जायेंगे।