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विश्व-विमर्श
श्रीलंका : सियासत, विक्रमसिंघे और कांटों का ताज
डॉ. सुधीर सक्सेना
अपरान्ह करीब पौने दो बजे कोलंबो से वरिष्ठ राजनयिक व वकील शरत कोनगहगे ने खबर दी-‘रनिल विक्रमसिंघे सायं साढ़े छह बजे श्रीलंका के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे।’ तो यकायक यकीन नहीं हुआ। विक्रमसिंघे श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री व सम्मानित नेता हैं। करीब तीन साल पहले उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी थी। दिलचस्प तौर पर श्रीलंका की संसद में उनकी यूनाइटेड नेशनल पार्टी का एक भी सांसद नहीं है। बताया जाता है कि उन्हें सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदूजना पेरामुना ने समर्थन दिया है। इस बीच विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति गोटबाया की प्रधानमंत्री पद की पेशकश ठुकरा दी थी और उनके इस्तीफे की मांग दोहराई थी। इस दरम्यान कोर्ट ने पूर्व पीएम व उनके पुत्र नामल समेत 11 व्यक्तियों के कहीं भी जाने पर पाबंदी लगायी है। श्रीलंका के मिजाज को इससे समझा जा सकता है कि तटीय शहर नेगोम्बो में ट्रेड यूनियनों की अपील पर मुकम्मल बंद रहा।
इसमें शक नहीं कि श्रीलंका इन दिनों अंधे बोगदे में है। कहना कठिन है कि यह स्थिति कब तक रहेगी? असमंजस घना है क्योंकि बोगदे का सिरा नजर नहीं आ रहा है। परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। आर्थिक संकट, प्रशासकीय विफलता, व्यापक भ्रष्टाचार, जन-असंतोष और नेतृत्व के संकट ने सुंदर-सुरम्य प्रायद्वीप के सम्मुख अभूतपूर्व और विषम संकट उत्पन्न कर दिया है।
श्रीलंका पिछले चालीस दिनों से देशव्यापी आंदोलन की चपेट में है। कोलंबो में पूर्व प्रधानमंत्री के ‘टेंपल ट्रीज’ आवास, समुद्र के किनारे विस्तृत गाले फेस ग्रीन में तथा अन्यत्र आंदोलन चल रहा है। किन्तु सोमवार को शांुितप्रिय निहत्थे आंदोलनकारियों पर राजपक्ष परिवार की सत्तारूढ़ पार्टी श्रीलंका पोदुजन पोरामुना के कार्यकर्ताओं और गुंडों ने जिस तरह हमला किया, उसने ऐसी राष्ट्रव्यापी रोषाग्नि को जन्म दिया, जिस पर नियंत्रण हाल-फिलहाल संभव नहीं दीखता। परामुना के सांसद अमरकीर्ति अधुकोराला समेत आठ लोग मारे जा चुके हैं। दो सौ से अधिक आहत हुए हैं और पेरामुना के नेताओं के दर्जनों घर फूंक दिये गये है। अभी भी कर्फ्यू बढ़ाया जा सकता है। शूट एट साइट की खबर अफवाह साबित हुई है। सेना के कारण अब तक राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष बचे हुए हैं, लेकिन उसकी सतर्कता का पता सैन्य प्रमुख के बयान से चलता है। श्रीलंका के चीफ आॅफ डिफेंस जनरल शैवेन्द्र सिल्वा ने स्पष्ट कर दिया है कि न तो ‘देखते ही गोली’ मारने का फर्मान जारी किया गया है और न ही सेना ऐसा कुछ करेगी। जाहिर है कि सेना को जनभावनाओं का एहसास है और वह उग्र कार्रवाई से रोषाग्नि में ईंधन डालने के मूड में नहीं है।
पहले यह माना जा रहा था कि बढ़ते बवाल से बचने के लिए राष्ट्रपति गोटबाया संसद भंग कर नये आम चुनाव का ऐलान कर सकते हैं, लेकिन 11 मई को उनके राष्ट्र के नाम संदेश ने स्पष्ट कर दिया कि उनका संसद भंग करने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने संविधान के 19वें अनुच्छेद में संशोधन की बात भी कही है। यही वह अनुच्छेद है, जिसने गोटबाया को ‘तानाशाह’ की हैसियत दी है। जनता के रोष और भावी अनिष्ट से बचने के लिए उन्होंने कहा-‘‘आने वाले दिनों में संसद ताकतवर होगी।’’
पूर्व सांसद, राजनयिक और अधिवक्ता शरत कोनगहगे ने दूरभाष पर चर्चा में कहा-‘‘राजपक्ष परिवार ने श्रीलंका को तबाह कर दिया है। महिंद्र राजपक्ष प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर त्रिंकोमाली में किसी नौसैनिक अड्डे में जा छिपे हैं। कहना कठिन है कि वे भागकर कहा शरण लेंगे। उनके बेटे पूर्व युवक तथा खेलमंत्री नमल राजपक्ष ने कहा जरूर है कि उनके पिता देश से भागकर नहीं जाएंगे, किन्तु महिन्द्र में जनता का सामना करने की ताब नहीं है’’- कोनगहगे दो टूक कहते हैं कि गोटबाया राजपक्ष को भी इस्तीफा देना चाहिए। वे श्रीलंका की बर्बादी के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं।
इस वक्त श्रीलंका में राजपक्ष परिवार क्रोध और घृणा का पात्र है। महिंद राजपक्ष की तुलना रोमानिया के चाउशेस्कू और फिलिप्पींस के मार्कोस से की जा रही है। केलानिया विश्वविद्यालय में शिक्षिका एवं हिन्दी लेखिका सुश्री सुभाषिणी रत्नायक कहती हैं – ‘‘महिंद्र राजपक्ष, श्रीलंका के इतिहास के घृणिततम व्यक्ति हैं। श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा के लिए राजपक्ष परिवार और सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं।’’
यही बात वरिष्ठ पत्रकार अजित निशांथ भी कहते हैं। उनका कहना है कि आर्थिक बर्बादी, अशांति और जरूरी चीजों की किल्लत के लिए कुनबावाद, अदूरदर्शी नीतियां और भ्रष्टाचार जिम्मेदार है। जन-आंदोलन का शांतिपूर्ण रहना सुखद है। स्थिति यह है कि अब पेरामुना के समर्थक भी उनके विरोध में उठ खड़े हुए हैं।
राजपक्ष परिवार की सत्ता में वापसी सन् 2019 में हुई। उनकी वापसी की कथा दिलचस्प है। उनके फरेबी बयानों ने राष्ट्रवाद की आंधी पैदा की। उन्होंने ‘अच्छे दिनों’ के सब्जबाग दिखाये और तमिलों तथा मुसलमानों के प्रति नफरत को लगातार हवा दी। बौद्ध मतावलंबियों और बहुसंख्यक सिंहलियों के मन में ‘हौवा’ और उन्माद पैदा किया। एक भाई राष्ट्रपति। दूसरा भाई प्रधानमंत्री। परिवार ने मलाईदार महकमे बांट लिये। राजकोष के 70 फीसद पर कुनबे का कब्जा। चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा। हंबनटोटा राजपक्ष बंधुओं का गढ़ है। चीन ने कर्जा दिया और फिर सन् 2017 में पांव जमा लिये।
यूं तो श्रीलंका को कर्जा भारत समेत औरों ने भी दिया है, मगर उनकी नीतियां साम्राज्यवादी नहीं हैं। श्रीलंका को कर्ज में चीन और जापान का हिस्सा तकरीबन दस-दस फीसद है। वर्ल्ड बैंक और एडीबी व अन्य देशों का नौ-नौ प्रतिशत तथा मार्केट का 47 फीसद। भारत का अंश मात्र दो प्रतिशत है। श्रीलंका पर सकल ऋण करीब 51 अरब डॉलर है, जिसको मुद्रा भंडार तीन सालों में 8884 मिलियन डॉलर से घटकर 2311 मिलियन डॉलर पर आ गया है। श्रीलंका में तेल की खपत 1.30 लाख बैरल प्रतिदिन है, मगर आ रहा है मात्र .30 लाख बैरल। आज श्रीलंका के पास बस इतनी विदेशी मुद्रा है कि वह एक हफ्ते की जरूरत का तेल खरीद सके। जरूरी चीजों की कीमतों में आग लगी है। दामों पर नजर डालिये- गेहूं 200 रुपये किलो, चांवल 220 रु. प्रति किलो,चीनी 7240 रु. किलो, नारियल तेल 850 रु. लिटर। एक अंडे की कीमत 30 रुपये। सौ रुपये में चाय की प्याली बमुश्किल नसीब। पेट्रोल और डीजल क्रमश: 250 रु. और 200 रु. प्रति लिटर। मिल्क पाउडर 1900 रुपये में एक किलो। एलपीजी का एक सिलेंडर 4200 रुपये में।
लोग जाएं तो कहां जाएं। खाएं तो क्या खाएं। दुकानों पर लंबी-लंबी कतारें। आय के स्रोत बंद। पर्यटन श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत था। गरम मसाले और चाय निर्यात की प्रमुख वस्तुएं। सन् 2018 में श्रीलंका में 23 लाख पर्यटक आएं। सन् 2019 में 19 लाख, लेकिन कोविड काल में सन् 2020 में 5.07 लाख सैलानी ही आए। सन् 2021 में यह संख्या घटकर 1.94 लाख रह गयी। सैलानी नहीं तो कमाई नहीं। रही सही कसर उर्वरकों और रसायनों पर पाबंदी ने पूरी कर दी। उत्पादन गिरा। फलत: अर्थव्यवस्था धड़ाम। सेंट्रल बैंक के गवर्नर नंदलाल वीरसिंघे कहते हैं कि यही स्थिति रही तो उनके लिए पद पर बने रहना मुश्किल होगा।
श्रीलंका में करीब 17-18 लाख भारतीय रहते हैं। उनके हितों को लेकर भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और श्रीलंका के प्रधानमंत्री सिरिमावो भंडारनायके में सन् 1964 मेंसमझौता हुआ था। भारत को वहां भारतीयों के हितों के प्रति सचेत रहना होगा। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नेता का श्रीलंका में भारतीय सेना भेजने का बयान कतई विवेकपूर्ण नहीं है। श्रीलंका में विपक्ष के नेता अजय सैली ने भारत से डॉ. स्वामी, जो राजपक्ष-परिवार से नजदीकी संबंधों के लिए जाने जाते हैं, के खिलाफ कदम उठाने की मांग की है।
इसमें शक नहीं कि सन 2018-19 में प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे ने कांटों का ताज पहना है। चुनौतियां कठिन हैं। समय प्रतिकूल। रनिल को प्रधानमंत्री बनाने का राष्ट्रपति गोटबाया का निर्णय निहायत चतुराईभरा सियासी फैसला है। जैसा कि शरत कोनगहगे ने कहा-‘73 वर्षीय विक्रमसिंघे अनुभवी व सर्वस्वीकार्य नेता हैं। उनकी घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय छवि अच्छी है। वे जहाज को तूफान से बाहर निकाल सकते हैं।’’ कोनगहगे का कहना सही है, किन्तु राष्ट्रपति गोटबाया ने बहुत सलीके से गोटी चली है। इससे उन्होंने अपने परिवार और अपने प्रति रोष पर ठंडे पानी के छींटे मारने का यत्न किया है। साथ ही चालाकी बरती है कि अगर्चे स्थिरता नहीं सुधरीं तो ठीकरा विक्रमसिंघे पर फोड़ा जा सके।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )
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