सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

महंगाई को डार्लिंग न बनने दें!

           -डॉ. दीपक पाचपोर

बात 70 के दशक की है। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1971 में बांग्लादेश की लड़ाई जीतकर व पाकिस्तान के दो टुकड़े कर देश-विदेश में वे एक सी लोकप्रिय हो चुकी थीं। ‘मजबूती का नाम इंदिरा गांधी’ था। उस समय देश में प्याज का अभूतपूर्व संकट छा गया था क्योंकि उसकी पैदावार बहुत कम हुई थी। दूसरी तरफ पाकिस्तान में इतनी बम्पर फसल हुई थी कि वह देश में उसे खपा नहीं पा रहा था। उसे विदेशी बाजारों की तलाश थी। इंदिरा के सलाहकारों ने जब प्याज पाकिस्तान से खरीदने की सलाह दी तो उन्होंने इस आशंका से सुझाव को खारिज कर दिया कि इससे उनकी लोकप्रियता घटेगी।

पाकिस्तान हुक्मरान भी इसी मानसिकता के चलते भारत को प्याज बेचने की पेशकश नहीं कर रहे थे कि कहीं उन्हें वहां की जनता के गुस्से का शिकार न होना पड़े। बहरहाल, इंदिरा के नजदीकी व ग्रेट ब्रिटेन में बस गये हिंदुजा परिवार के सबसे बड़े बेटे श्रीचंद मदद के लिये आगे आये। उन्होंने बताया कि अगर वे चाहें तो इरान के रास्ते भारत में प्याज भिजवा सकते हैं लेकिन इसमें मुश्किल यह थी कि इरान के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष शाह पहलवी और इंदिरा गांधी एक दूसरे तो फूटी आंखों से भी देखना पसंद नहीं करते थे। श्रीचंद ने निजी सम्बन्धों का फायदा उठाकर पहलवी को राजी किया और भारत में इरान के रास्ते व जरिये प्याज का आयात हो सका। महंगा ही सही लेकिन भारतीयों की थालियों तक प्याज पहुंचने से इंदिरा गांधी की साख बची। प्याज की महंगाई का खेला आगे भी जारी रहा। 1974-75 में इंदिरा गांधी के प्रति नाराजगी का कारण भ्रष्टाचार तो था ही, इसके अलावा महंगाई का भी बड़ा मुद्दा था। बाद में आपातकाल भी उसमें शामिल हो गया। इस तरह देखें तो उन्हें सत्ताच्युत करने में प्याज व महंगाई की भी भूमिका थी, लेकिन मजेदार बात तो यह है कि 1980 में उनकी सत्ता में जो वापसी हुई उसका कारण जनता पार्टी सरकार की अस्थिरता व आंतरिक झगड़ों के अलावा प्याज की बढ़ती कीमतें एवं समग्र महंगाई थी। प्याज की बढ़ती कीमतों के कारण ही एक बार भारतीय जनता पार्टी की सुषमा स्वराज एवं कांग्रेस की शीला दीक्षित को भी मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर का रास्ता देखना पड़ा था। महाराष्ट्र की हर सरकार को नासिक के लासलगांव मंडी पर खास ध्यान देना होता है जो कि देश में सबसे बड़ा प्याज उत्पादक क्षेत्र है और वहां के किसान अगर नाराज होते हैं तो सरकार पर उनका रोष जमकर बरसता है।

दुनिया भर की सरकारें महंगाई पर काबू पाने की कोशिश करती रहती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि जनता को सबसे पहले एवं सर्वाधिक प्रभावित अगर कुछ करता है तो वे हैं उनके जीवन यापन के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतें- चाहे वह पेट्रोल-डीज़ल हो या खाद्यान्न अथवा स्वास्थ्य-शिक्षा आदि। यह सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे चाहे जैसे महंगाई को घटाए एवं लोगों को राहत प्रदान करें। महंगाई कम करने की मांग करने से न तो नागरिक राष्ट्रद्रोही होते हैं और न ही वे किसी समुदाय या धर्म के विरोधी। ऐसे ही, लोगों की तकलीफें कम करने से किसी सरकार की न तो हार होती है और न ही वे छोटी हो जाती हैं। भारत में ही जिस जनता पार्टी की आज सरकार हैं, उसके शीर्ष नेता कभी पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें बढ़ने से परेशान जनता की तकलीफों को अभिव्यक्त करने बैलगाड़ी पर बैठकर संसद भवन गये हैं या गैस सिलेंडर की तस्वीर छपे कपड़े पहनकर अथवा सब्जियों की माला पहनकर प्रदर्शन करते रहे हैं। वर्ष 2018 में पेट्रोल के दाम बढ़ने से जर्मनी के नाराज लाखों नागरिकों ने अपनी कारें सड़कों पर ही छोड़ दीं जिससे वहां की सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा था। ये नागरिक ऱाष्ट्रविरोधी घोषित नहीं हुए न ही सरकार के दुश्मन माने गये। मजेदार बात तो यह है कि जो अमिताभ बच्चन या अनुपम खेर पेट्रोल की बढ़ती कीमतों को लेकर आरोप लगाते थे या तंज कसते थे- आज चुप हैं। जिस रामदेव बाबा ने भाजपा सरकार के आने पर 35 रुपये लीटर पेट्रोल मिलने की भविष्यवाणी की थी, वे अब महंगाई के मामले पर चुप हैं या भड़क जाते हैं।

सोचने की बात तो यह है कि जिस भारत के लोकतांत्रिक जीवन में विरोध को नागरिकों का बुनियादी हक माना और सहर्ष स्वीकारा गया है, क्यों अब लोग उससे कन्नी काटने लगे हैं या फिर उनका उपहास करने लगे हैं अथवा आलोचना करते हैं। जनता का एक बड़ा वर्ग जिस तरह से सरकार से महंगाई पर सवाल करने पर सत्ता के पक्ष में खड़ा होता है वह आश्चर्यजनक तो है ही, हमारे नागरिक बोध का लोप भी दर्शाता है।

दुनिया के विकसित लोकतंत्र में सरकारों से प्रश्न करने वालों या उनकी आलोचना करने वालों की हमेशा कद्र और सराहना होती रही है। इसके विपरित, तानाशाही प्रवृत्ति के शासक इसे नापसंद करते हैं। सरकार की आलोचना करने वालों को दबाने या उनका मुंह बन्द करने के लिये ऐसी सरकारें न केवल अपनी मशीनरी का उपयोग करती हैं बल्कि नागरिकों के ही एक वर्ग को इस काम में लगा दिया जाता है। अपने स्वार्थ या क्षुद्र हितों के लिये ऐसे लोग अपने ही हित में बात करने वालों के खिलाफ खड़े होकर सरकार के लिये रक्षा पंक्ति का काम करते हैं। ऐसा आज हम भारत में होता हुआ देख रहे हैं। इससे शह पाकर ही सरकारें अपनी तकलीफें या बहाने बताकर पल्ला झाड़ लेती हैं। हमारी वित्त मंत्री एन सीतारमण तो यह कहकर मुक्त हो जाती हैं कि वे प्याज नहीं खातीं इसलिये उन्हें इसकी बढ़ती कीमतों से कोई समस्या नहीं है। इसी प्रकार मोदी शासनकाल-1 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली साफ कह देते हैं कि “मध्यवर्ग अपनी चिंता खुद कर ले!” हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं जिसमें संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्य मनरेगा जैसी लोक कल्याणकारी योजना का देश के उच्चतम शासक द्वारा मजाक उड़ाया जाता है जबकि 80 करोड़ लोगों को हर माह 5 किलो राशन के मुफ्त प्रदाय का महिमा मंडन होता है। इतना ही नहीं, इस राशन का वितरण चुनाव के लिहाज से तय होता है और गरीब व लाचार जनता का वोट खरीदने का वह माध्यम बन गया है। हालांकि वह किसी भी सरकार की प्रारम्भिक जिम्मेदारी है।

वर्तमान सरकार के बेहद खराब आर्थिक प्रबंधन से देश ने महंगाई के ऐसे स्तर को छू लिया है जिसमें आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। मोदी सरकार पेट्रोल-डीज़ल के दाम लगातार बढ़ा रही है। दूध व साग-भाजी से लेकर भवन निर्माण सामग्रियां एवं शासकीय सेवाएं तक महंगी होती जा रही हैं। एक मजबूत अर्थव्यवस्था का दावा करने के बावजूद देश की माली हालत किसी से छिपी नहीं है। शासकीय कोष में रखा धन या बढ़ता निर्यात तभी फलदायी है जब उससे लोगों का जीवन स्तर सुधरता दिखे। पड़ोसी देश श्रीलंका का उदाहरण सामने है। जनता की भुखमरी व गरीबी 5 किलो राशन से दूर नहीं हो सकती। पेट की आग हिंसक व अराजक समाज की रचना करती है। बांग्ला कवि रफीक आजाद की प्रसिद्ध कविता ‘भात दे, हरामजादे’ की ये पंक्तियां याद रखनी होंगी-
“नहीं मिटा सकते यदि मेरी यह छोटी मांग,
तो तुम्हारे सम्पूर्ण राज्य में मचा दूंगा उथल-पुथल,
भूखों के लिये नहीं होते हित-अहित, न्याय-अन्याय।”
इस कविता की अंतिम पंक्तियां कहती हैं-

“मेरी भूख की ज्वाला से कोई नहीं बचेगा,
भात दे, हरामजादे! नहीं तो खा जाऊंगा तेरा मानचित्र।”
इसलिये बेहतर है कि महंगाई डायन ही बनी रहे, सत्ता उसे डार्लिंग न बनाये!

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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