सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर
15 जनवरी 2022
महिला केन्द्रित ध्रुवीकरण ही असली सामाजिक समीकरण है
-डॉ. दीपक पाचपोर
हर चुनाव नये प्रयोगों को जन्म देता है जो किसी भी लोकतंत्र के लिये स्वस्थ संकेत होते हैं, क्योंकि जनतांत्रिक व्यवस्था हमेशा खुद को परिमार्जित करने का ही उपक्रम है। फिर, जब हम चुनावों की बात करते हैं तो अधिकतम वोट पाना सभी दलों एवं प्रत्याशियों का उद्देश्य होता है क्योंकि उसके बिना किसी भी विधायिका में नहीं पहुंचा जा सकता- चाहे वह न्यूनतम इकाई ग्राम पंचायत हो या देश की सर्वोच्च संस्था लोकसभा-राज्यसभा। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास एवं भाषावली में इसे मतों का ‘ध्रुवीकरण’ इसलिये कहा जाता है क्योंकि हमारे यहां ज्यादातर चुनाव जातीय, धार्मिक, साम्प्रदायिक, भाषिक या प्रंतीय आधारों पर लड़े जाते हैं। पश्चिम के परिपक्व लोकतंत्र में जहां मतभेदों व निर्वाचन का आधार ज्यादातर आर्थिक मुद्दे, नागरिक सुविधाएं, जनतांत्रिक अधिकार, सरकारी नीतियां आदि होती हैं, वहीं हमारे यहां इन सबसे दूर भावनात्मक मसलों पर वोट पाना कहीं ज्यादा आसान और प्रचलन में है। भारत के लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी कमजोरी भी है जिसके कारण देश की जनता मूलभूत अधिकारों को लगातार खोती जा रही है और सरकार के मुकाबले कमजोर हो रही है। मजबूत लोकतंत्र में नागरिक सशक्त और सरकार कमजोर होती है।
भारत की राजधानी बेशक दिल्ली हो परन्तु उसकी राजनीति का मुख्य केन्द्र हमेशा उत्तर प्रदेश, बिहार समेत हिन्दी बेल्ट रहा है। यह जहां एक ओर देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा है, वहीं आजादी के बाद वह सामाजिक तनाव का जन्मदाता भी रहा है।
जातीयता और साम्प्रदायिकता के आधार पर चुनाव लड़ने की उसकी परिपाटी स्वतंत्र मुल्क होने के करीब तीन चौथाई सदी के बाद भी कायम है। ऐसा नहीं कि शेष राज्य इस राजनैतिक-सामाजिक व्याधि से मुक्त हैं, परन्तु जहां इस तरह के चुनावी तौर-तरीकों का निर्वाह सर्वाधिक शिद्दत से होता है उनमें से उप्र सबसे आगे है। इसके प्रमुखतः 2-3 कारण हैं, पहला तो यह कि यहां का मतदाता बेहद परंपरागत जीवन जीता है जिसके अंतर्गत जातीयता और साम्प्रदायिकता का वर्चस्व है। एक समय में समाजवाद एवं साम्यवादी आंदोलनों का गढ़ रहे इस पूरे क्षेत्र में सम्प्रदायवाद एवं जातिवाद का ही अब बोलबाला है जिसमें राजनीति को खराब दिशा देने का कार्य ये तत्व ही करते हैं। खासकर 1989 से प्रारंभ मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई और तत्पश्चात 90 के दशक की शुरुआत में बाबरी मस्जिद के विध्वंस से ऊपजी परिस्थितियों ने नये समीकरणों का रास्ता खोला है जो अब तक जारी है। इस दौरान राम मंदिर बन गया, वाराणसी कॉरिडोर निर्मित हुआ और राजनीति अब मथुरा का मार्ग खोल रही है। वहीं दूसरी तरफ अगड़ों व पिछड़ों के बीच की लड़ाई के साथ ठाकुरवाद वर्सेस अन्य का बखेड़ा अलग खड़ा हो चुका है।
बहरहाल जातीयता, साम्प्रदायिकता, धार्मिकता से दूर मुद्दों पर आधारित राजनीति के लिये भारत को शायद अभी लम्बा इंतज़ार करना होगा। ऐसी राजनीति की अभी हम कल्पना नहीं कर सकते जिसमें हम शिक्षा, रोजगार, साफ पानी, अस्पताल, सड़क, साफ-सफाई, बिजली, पर्यावरण, महंगाई, कालाबाजारी, जमाखोरी आदि के मुद्दों पर चुनाव लड़ें।
2022 (फवरी-मार्च) के प्रारम्भ में होने वाला उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव एक नयी बयार लेकर आया है। वहां के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जहां इसे 80 बनाम 20 (हिन्दू-मुसलिम) का संघर्ष बतलाया है, वहीं समाजवादी पार्टी में भाजपा से आये स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसे 85 बनाम 15 (पिछड़ों व सवर्णों) की लड़ाई बतला दिया है। एक ओर साम्प्रदायिक कार्ड है तो दूसरी तरफ जातीय झगड़ा। दोनों ही समीकरण निराशाजनक एवं समाज को तोड़ने वाले हैं जिनमें आर्थिक मुद्दे अनुपस्थित हैं। शायद विकास का दावा करने वाले हमारे नेता एवं पार्टियां इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीते जा सकते, जबकि योगी और सपा प्रमुख अखिलेश यादव दोनों ही विकास के दावे बढ़-चढ़कर करते आये हैं।
इन दोनों के मुकाबले कांग्रेस ने महिलाओं को इस संघर्ष का तीसरा कोण बना दिया है। ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे के साथ पार्टी ने 40 फीसदी महिलाओं को टिकटें देने की जो घोषणा की है वह अनेक मायनों से महत्वपूर्ण है। यह उप्र में प्रताड़ित होती महिलाओं के हाथ में राजनैतिक शक्ति प्रदान करने का उपक्रम है। महिलाएं जिस भी दल से जीतें- महत्वपूर्ण तो यह है कि वे स्त्रियों के हालात को लेकर आवाज उठायें, उन पर होने वाले अत्याचारों पर विधानसभा-संसद को गुंजायमान करें और महिला सशक्तिकरण उन्मुख नीतियां बनाने के लिये सरकार को मजबूर करें। एकाध को छोड़कर देश के लगभग सभी तरह के महत्वपूर्ण पद सम्भाल लेने के बाद भी देश महिला अपराधों के मामले में दुनिया के सबसे खराब देशों की सूची में काफी ऊपर है और भारतीय स्त्रियां न्याय पाने से अक्सर वंचित रह जाती हैं। सभी धर्मों एवं जातियों की औरतें देश में न केवल अधिकाररहित जीवन जीती हैं बल्कि सबसे अधिक पीड़ित समुदाय का वे हिस्सा हैं। शिक्षा, रोजगार, सम्पत्ति के अधिकारों के मामलों में वे वंचित समूह हैं और मानवाधिकारों के मामलों में सबसे पीछे की कतार में खड़ी हैं।
ऐसे में यह अत्यधिक आवश्यक है कि वे राजनैतिक रूप से सशक्त हों। उनके हाथों में राजनीति की कमान हो। यूपी इसलिये श्रेष्ठ शुरुआत है क्योंकि महिलाओं की स्थिति यहां बेहद खराब है और पिछले 5 वर्षों में उन पर जो अत्याचार हुए हैं वे भी सामने हैं, वह चाहे उन्नाव की घटना हो या हाथरस की अथवा मथुरा की। भारत सरकार का क्राईम ब्यूरो भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। औरत हमारे समग्र पिछड़ेपन के केन्द्र में हैं। उन्हें सशक्त करना पूरे समाज को ही शक्तिशाली, खुशहाल और सम्पन्न करना है। इसलिये महिलाओं का अधिकाधिक संख्या में विधायिकाओं में पहुंचना पूरे देश की तस्वीर को पलट सकता है जिसकी राजनीति के केन्द्र में हमारे बुनियादी मुद्दे हों न कि भावनात्मक मसले। सच तो यह है कि भावनात्मक मुद्दों से होने वाली अराजकता और हिंसा का सबसे अधिक शिकार तो अंततः महिलाएं ही होती हैं। इसलिये राजनीति की मुख्य धारा में लाने और उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने से हमारी राजनीति और लोकतंत्र स्वच्छ होगा। कायदे से तो वे 50 फीसदी की हकदार हैं, पर शुरुआत 40 प्रश भी कोई बुरा नहीं है। वैसे भी 33 फीसदी आरक्षण का बिल करीब तीन दशक से संसद के सामने लम्बित है क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली हमारी संसद में औरतों की आवाज बेहद क्षीण है। इसी आवाज को बुलन्द करना महिलाओं का पहला एजेंडा होना चाहिये। यह अच्छी बात है कि किसी ने तो इसकी पहल की।