सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

शनिवार 22 जनवरी 2022

प्रियंका का खुद को ‘सीएम का चेहरा’ बतलाना कितना प्रभावी होगा?

 -डॉ. दीपक पाचपोर

होने को तो इस वर्ष के फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं लेकिन अनेक कारणों से उत्तर प्रदेश के चुनाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं। हालांकि उप्र की राजनीति और वहां के सभी तरह के चुनाव पूरे देश की दिशा एवं दशा को निर्धारित करते आये हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी हिन्दी हार्टलैंड के एपिसेंटर कहे जाने वाले इस प्रदेश के चुनावों पर सबकी नज़रें गड़ी हुई हैं। सामाजिक ध्रुवीकरण के रंगबिरंगी खेला के अंतर्गत वहां के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गेरुआ सियासत एवं उसकी तोड़ के रूप में पूर्व सीएम व समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वारा पिछड़े समुदायों की गोलबंदी के बीच एवं देश के प्रथम राजनैतिक परिवार की बेटी प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस के जरिये जिस तरह से सामाजिक मुद्दों को विमर्श के केन्द्र में लेकर आई हैं, उससे समग्र राजनीति ने एक नया मोड़ ले लिया है। पहले महिलाओं को 40 फीसदी सीटें देने की घोषणा करने के बाद उन्होंने राज्य में युवाओं को रोजगार का बड़ा मसला उठा दिया है। शुक्रवार को दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ‘भर्ती विधान’ के रूप में 20 लाख नौकरियां देने का ब्लू प्रिंट पेश करते हुए प्रियंका ने एक और बड़ा घोषणा तो कर दी परन्तु सामान्य तौर पर प्रेस को पूरे आत्मविश्वास से हैंडल करने वाली प्रियंका एक पत्रकार के सहसा पूछे गये सवाल के प्रत्युत्तर में अस्पष्ट रूप से खुद को वहां सीएम का चेहरा घोषित कर बैठीं। हालांकि उन्होंने जवाब घुमा-फिराकर दिया, लेकिन उसका अर्थ यही निकलता है कि वे ही मुख्यमंत्री का चेहरा हैं।

प्रियंका का यह ऐलान कई सवाल छोड़ता है और कांग्रेस की कार्यपद्धति व पृष्ठभूमि में जाने की ज़रूरत भी बतलाता है। पहली बात तो यह है कि क्या कोई इस तरह से खुद को ही सीएम का चेहरा घोषित कर सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस में उनकी मां सोनिया अध्यक्ष हैं तो भाई राहुल उपाध्यक्ष, जो देर-सबेर अध्यक्ष बन ही जायेंगे। वे खुद राष्ट्रीय महासचिव हैं एवं उस राज्य की प्रभारी भी। प्रेस कांफ्रेंस के वक्त वहां राहुल भी मौजूद थे। कायदे से इसका ऐलान तो उनकी ओर से होना चाहिये था या फिर उसकी पुष्टि या खंडन होना चाहिये था। यह भी सवाल उठता है कि क्या इसके लिये राज्य इकाई को विश्वास में लिया गया और क्या हाईकमान की इसमें औपचारिक या अनौपचारिक सहमति है? यह पार्टी का लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व है कि वह स्थिति को स्पष्ट करे क्योंकि इस घोषणा से अन्य कई जिज्ञासाएं नत्थी हैं- मसलन, क्या वे चुनाव लड़ेंगी? अगर हां, तो कहां से? क्या वे उनकी पार्टी के बहुमत पाने (जिसकी सम्भावना काफी अल्प है लेकिन कोई कह नहीं सकता कि राजनीति कब करवट बदलती है) की स्थिति में पहले वह सीएम बन जायेंगी और बाद में चुनाव लड़ेंगी? यह संविधान सम्मत एवं प्रचलन में है। फिर, एक न्यूज़ चैनल के साथ चर्चा में उन्होंने यह भी कहा है कि अगर आवश्यकता हुई तो वे अखिलेश को सरकार बनाने में समर्थन देंगी। अगर वे स्वयं सीएम का चेहरा हैं तो कैसे इस परिस्थिति की कल्पना कर सकती हैं जिसमें उनकी पार्टी की पराजय एवं अन्य को समर्थन का विचार हो?

बहरहाल, अनेक उलझन छोड़ने वाले इस मुद्दे का एक अन्य पक्ष यह भी है कि खुद को सीएम का चेहरा बतलाने का तरीका कुछ अजीबोगरीब तो है ही, इसकी टाइमिंग भी खराब है। फिल्मों में जिस तरह से नये चेहरे को लॉंच किया जाता है, वैसे ही राजनीति में भी किसी का धमाकेदार प्रवेश ज़रूरी है वरना अक्सर वह प्रभावशाली नहीं रह पाता। पूरे देश में इसके कई दृष्टांत हैं- विशेषकर, राजनैतिक परिवारों से जुड़े लोगों को तो इसी तरीके से उतारा जाता है। स्वयं इसी परिवार को देखें तो कई दिलचस्प उदाहरण हैं। जवाहरलाल नेहरू को किसी लांचिंग की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि देश की स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान ही महात्मा गांधी के बाद वे ही सबसे बड़े नेता थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनकी छाया में राजनैतिक एवं प्रशासनिक प्रशिक्षण पा लिया था और देश को पता ही नहीं चला कि कब के सार्वजनिक जीवन में लॉंच हो गयी हैं और कब प्रधानमंत्री भी बन गयी। संजय गांधी भी आपातकाल में लॉंच हो चुके थे परन्तु उनकी अकाल मृत्यु ने राजीव गांधी को हवाई जहाज उड़ाने का काम छुड़ाकर राजनीति में लाया गया। पहले उन्हें महासचिव बनाया गया और फिर 1982 को दिल्ली में हुए एशियाई खेल के आयोजन की जिम्मेदारी दी गयी। साथ ही यह सुरेश कलमाड़ी एवं शीला दीक्षित आदि के जरिये सुनिश्चित किया गया कि यह आयोजन सफल हो। ऐसा ही हुआ। श्रीमती सोनिया गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने के लिये तो एम एल फोतेदार, कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव गुलाम नबी आजाद, एस एस अहलूवालिया, रत्नाकर पांडेय आदि ने 1997 में बाकायदा अभियान चलाया था। उनके आने पर देश भर में उन्हें बड़े पैमाने पर लाॅच किया गया था। राहुल गांधी को भी पहले युवा कांग्रेस की सांगठनिक जिम्मेदारियां दी गयीं और फिर कई राज्यों के चुनावों का प्रभारी बनाया गया। यही नहीं, लगातार असफलताओं के बाद भी वे कांग्रेस में उठते गये हैं क्योंकि उन पर परिवार की छाप है। एक लम्बे अरसे तक प्रियंका राजनीति में आने में ना -नुकुर करती रहीं। 10-12 साल पहले उन्होंने बीबीसी को दिये इंटरव्यू में कहा था कि वे कभी राजनीति में नहीं जायेंगीं। खैर, स्थितियां बदलीं और वे राजनीति में न केवल आ गयी हैं वरन सुप्त पड़े उ. प्र. के संगठन में जान भी फूंकी है। जिस पार्टी को यहां चौथे क्रमांक पर रखा जाता था, आज वह क्रमशः ऊपर उठ रही है, योगी-अखिलेश के अलावा तीसरा कोण तो बन ही चुकी है और यहां का नैरेटिव भी सेट कर रही हैं- सामाजिक ध्रुवीकरण से अलग राह पकड़कर ठोस मुद्दों को विमर्श का प्रधान विषय बनाते हुए।

लम्बे समय तक प्रियंका के राजनीति में न आने का एक कारण यह भी था कि उन्हें तुरुप का पत्ता समझा जाता था। यानी उन्हें ऐसे वक्त पर लॉंच किया जाये जब सब कुछ अनुकूल हो और वे ठीक से स्थापित हो जायें। उनकी असफलता का मतलब होगा न केवल तुरुप के पत्ते का विफल हो जाना वरन गांधी परिवार की प्रतिष्ठा का भी स्खलन होना। इसीलिये एक चमकदार शुरुआत के बाद उनका खुद को ही सीएम का चेहरा बतलाना स्वयं उनके लिये और साथ ही उनके संगठन के लिये उलझाव पैदा कर सकता है। अगर हाईकमान उनकी बात पर मुहर लगाता है तो इस बात की पुष्टि हो जायेगी कि ‘परिवार ही शक्तिमान’ है। अगर इसके विपरित शीर्ष नेतृत्व फैसला करता है कि प्रियंका सीएम का चेहरा नहीं हैं तो न केवल उनके व पार्टी के लिये एक तरह से अपमान की स्थिति बनेगी बल्कि साख व प्रतिष्ठा भी गिरेगी। इतना ही नहीं, उन्हें सीएम चेहरा न मानना कांग्रेस नेतृत्व के लिये भी अड़चन भरा होगा क्योंकि उसी मीडिया सम्मेलन में राहुल ने ही कहा था कि उनके दल में ऊपर से कोई बात थोपी नहीं जाती और राज्य इकाइयां अपने निर्णय स्वयं लेती हैं। देखना यही है कि स्वघोषित सीएम का चेहरा कितना फलदायी होता है- कांग्रेस के लिये तथा स्वयं प्रियंका के लिये।

डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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