प्रस्तुति- सतीशकुमार सिंह

स्वर्गीय अनिरुद्ध नीरव के गीत

इस मुहल्ले में
नहीं मैदान
           बच्चा कहाँ खेले?
घर बहुत छोटा
बिना आंगन
बिना छत और बाड़ी,
गली में
माँ की मनाही
           तेज़ आटो तेज़ गाड़ी
हाथ में बल्ला
मगर मुँह म्लान
           बचा कहाँ खेले?

एक नन्हें दोस्त
के संग
           बाप की बैठक निहारे
एक गुंजाइश
बहुत संकरी लगे
                 सोफ़ा किनारे
बीच में पर
काँच का गुलदान
           बच्चा कहाँ खेले?

खेल बिन बच्चा
बहुत निरुपाय
                बहुत उदास है
खेल का होना
बिना बच्चा
              नहीं कुछ ख़ास है
रुक गई है
बाढ़ इस दौरान बच्चा कहाँ खेले?

           

मुट्ठियाँ मत भींच
तनगू मुट्ठियाँ,
भूल जा सरपंच की धमकी
खड़ी बेपर्द गाली
खींच मांदर गा लगा ले ठुमकियाँ ।

बैल मत ख़ुद को समझ
हैं बैल के दो सींग भी ।
भौंकता वह
मारना मत श्वान वाली डींग भी ।

देखकर तुझको फ़कत
शरमा रही हैं बकरियाँ ।

साँवला यह मेघ-सा तन
स्वेद का सावन झरे ।
पर न कोई गड़गड़ाहट
गाज या बिजली गिरे ।

जबकि रखतीं आग हैं
मृत फास्फोरस हड्डियाँ ।

धान कब
किसने चुराया ?
जबकि तू पहरे पे था ?
चर गए
क्यों ढोर खेती ?
क्या नहीं अहरें पे था ?

तू खुरच कर सो बदन से

प्रश्न की ये चिप्पियाँ ।

बहस के बाद भी
आगे बहस है
बहस के पेंच के ऊपर
न कोई पेंचकस है ।

बहस में
क्या ग़लत है ?
सब सही है
दलीलें हैं
मिसल है
बतकही है ।
नहीं तो फ़कत
कोई नतीजा
हर इक मसला
वहीं पर जस का तस है ।

ज़हन आला
क़िताबें फ़लसफ़ा हैं ।
बहस में
इल्म है इल्ज़ाम है
दावा दफ़ा है ।
कहीं ज़िन्दा जिगर
मज़बूत दिल है
तो कहीं कमज़ोर नस है ।

बहस पत्थर के फल
काग़ज़ की रोटी
बहस में लोइयाँ तो हैं
मगर सब
हो गईं शतरंज-गोटी ।

ये कोई खेल है
रस्साकसी

या रास रस है ?

फुलबसिया फुलबसिया
उतर गई
खेतों में
हाथों में लेकर हँसिया
फुलबसिया की काया
साँवली अमा है
चमक रहा हाथों में
किन्तु चन्द्रमा है
यह चन्द्रमा
दूध-भात
क्या देगा बच्चों को
लाएगा पेज और पसिया
फुलबसिया
पल्लू को खींच
कमर काँछ कर
साँय-साँय काट रही
बाँह को कुलाँच कर
रीपर से तेज़ चले
सबसे आगे निकले
झुकी-झुकी-सी एकसँसिया
फुलबसिया
खाँटी है खर खर खुद्दार है
बातों में पैनापन
आँखों में धार है
काटेगी जड़
इक दिन
बदनीयत मालिक की

बनता है साला रसिया ।

होता है
अन्तत: विदा घर से
वह पिछला घर
शीतल आशीष भरा
एक कुआँ छोड़कर ।

चाह तो यही थी
वह जाए
पर उसका कोई हिस्सा
ठहरे कुछ दिन
चूने की परतों में
बाबा माँ बाप रहें
बच्चे लिखते रहें
ककहरे कुछ दिन ।

लेकिन वह समझ गया
वक्त की नज़ाकत को
सिमटा फिर
हाथ पाँव मोड़कर ।

चली कुछ दिनों तक
पिछले घर की
अगली यात्रा की
तैयारी पुरज़ोर
मलवा ओ माल
सब समेटा
कुछ बासी कैलेण्डर
कुछ फ्रेम काँच टूटे
सब कुछ लिया बटोर ।

एक मूर्ति का टुकड़ा
था जो भगवान कभी
जाता है
सब कृपा निचोड़ कर ।

कुएँ का तिलस्म
कौन समझे
पहले तो गरमी के
सूखे में
दिख जाता था तल
लेकिन अब रहता
आकण्ठ लबालब हरदम
छत पर चढ़ जाता है
घुमड़-घुमड़ गाता है
बनकर बादल
पितरों का जलतर्पण ।

क्या कोई विनियोजन

लौटा है ब्याज जोड़कर ।

यह नदी
रोटी पकाती है
हमारे गाँव में

हर सुबह
नागा किए बिन
सभी बर्तन माँज कर
फिर हमें
नहला-धुला कर
नैन ममता आँज कर

यह नदी
अंधन चढ़ाती है
हमारे गाँव में

सूखती-सी
क्यारियों में
फूलगोभी बन हँसे
गंध
धनिए में सहेजे
मिर्च में ज्वाला कसे

यह कड़ाही
खुदबुडाती है
हमारे गाँव में

यह नदी
रस की नदी है
हर छुअन है लसलसी
ईख बनने
के लिए
बेचैन है लाठी सभी

गुनगुना कर
गुड़ बनाती है
हमारे गाँव में ।

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