कविता@सतीशकुमार सिंह
मेरे पास
उनके पास
न जाने कितने हाथ हैं
देने को आशीष
मंत्रपूत जल भी हैं
जिसे छिड़कते
किसी अलग लोक का
वे वितान रचते
मुझ अदने से कवि के पास हैं
मेरी दो बाँहें
तुम्हें अँकवार में भर भेंटने को
मेरे प्रिय
आँखों में है
तुम्हारी प्रतीक्षा में
भरते झरते अश्रुकण
इस जीवंत अस्तित्व को
तुमसे ही साझा कर
होना है मुझे मुक्त
तुम भी आओ
बाँहें फैलाओ
एक दूजे के बंधन में
मुक्ति को वरें
कुछ इस तरह जिएं
कुछ इस तरह मरें
बहुत दिन हुए
दूर से बस सुनाई देती हैं
यदा कदा ट्रेन की सीटियाँ
बहुत दिन हुए
नहीं की मैंने कोई यात्रा
अपने हाथों से बैग पैक नहीं किया
नहीं सुनी पत्नी बच्चों की हिदायतें
चश्मा सम्हालकर रखना
सो जाते हो इसे पहने पहने
समय पर खा लेना
पैकेट में रखा खाना
हड़बड़ाहट में नहीं छूटी कोई ट्रेन
प्लेटफार्म पर नहीं टहला
उबासी लेते हुए
एक और ट्रेन के इंतजार में
स्टेशन के
बिज्जू चाय वाले की दुकान पर
तरस गया चाय सुड़कने को
हर यात्रा के पहले
देर तक बतियाते हुए
मेरे जूते पर पाॅलिश करने वाला
सुगना मोची
शायद मुझे याद करता हो !
पता नहीं
अब वहाँ बैठता भी होगा कि नहीं ?
कुछ दिन और ,
कुछ दिन और करते
बहुत दिन हुए
दोस्तों से मिले हुए
जी भर जिए हुए