प्रस्तुति-सरिता सिंह

इस दुर्दिन में दोस्त

यह वक्त ही ऐसा
जो हर परिभाषा के बाहर
पानी -सा रिस जाता दूसरे दिन
कोई लाख घेरना चाहे
जाता निष्फल,निरर्थक
हलक में सूख जाता थूक भी
ऐसे में कुछ दोस्त ही हैं
जो सुई धागे की तरह
सफ़ेद रुमाल पर काढ़ देते
एक सुर्ख़ गुलाब का फूल

इस अंतहीन ख्वाहिशों की सदी में
भले ये दोस्त इतने हलकान
और अपनी दुनिया में आत्ममुग्ध कि
किसी से भेंट होती बरसों बाद
इतवार के दिन सब्जी बाजार में
या किसी स्टेशन के
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर

ये दोस्त शायद ही कभी काम आते
गाढ़े वक्त में
इन्होंने रट लिया है बहानों का ककहरा
जैसे कि किसी को हुलास से इत्तिला
करो कि
मैं पहुंच रहा हूँ दिल्ली परसों
तो वह एक ही साँस में उत्तर देगा
एक जरूरी काम से
मुझे आज ही निकलना है पटना
बड़े अफ़सोस की बात है
इस बार तुमसे भेंट नहीं होगी दोस्त

ये दोस्त तिल का ताड़ बनाते
शिकायतों की एक मोटी किताब रखते
दोस्ती कम,अपनी चालाकियों
मक्कारियों के कारण
अधिक याद आते
पर सब कुछ के बावजूद
इस दुर्दिन में
उम्मीद के मेघ की तरह दिखते
भीग जाते भीतर से हम
और फेर लेते
सूखे होठों पर जीभ।

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