डॉ. सुधीर सक्सेना: एक विराट कवि और पत्रकार व्यक्तित्व

डॉ सुधीर सक्सेना: एक विराट कवि और पत्रकार व्यक्तित्व केशव शरण, वाराणसी

       जन्माष्टमी के दिन तीन सितंबर की शाम को अचानक हिंदी के जाने-माने कवि और संपादक डॉ सुधीर सक्सेना का फोन आता है कि वे बनारस में हैं और अस्सी घाट पर एक होटल में ठहरे हैं। समय हो तो तुरंत आ जायें, कुछ पल बैठ- बतिया लें क्योंकि वे सवेरे ही भोपाल के लिए निकल जायेंगे। व्यावसायिक पाक्षिक पत्रिका ' दुनिया इन दिनों 'के संपादक के रूप में हिंदी के इस सुप्रसिद्ध कवि-लेखक की व्यस्तता मैं समझ सकता था। एक लम्बे अरसे से जिससे मिलने के लिए मैं बेताब था वो ख़ुद ही मेरे शहर में मेरे इतने क़रीब थे कि मैं ख़ुशी से भर गया और मिलने चल दिया। होटल की लाबी में वे मेरा इंतज़ार करते मिले।र्फ्रेंचकट दाढ़ी में उनका सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व खिला हुआ था। होटल से निकले और हम अस्सी घाट पर आ गये। बाढ़ग्रस्त गंगा और उसमें झिलमिलाती शहर की रोशनियों की दिव्य छवियों को निहारते हम दो घंटे तक बैठे रहे और बातचीत करते रहे। अब तक दूर से उनको समझ पाया वह कितना कम और ऊपरी था यह अहसास उनसे विदा लेने और प्रथम मुलाक़ात में भेंट स्वरूप उनकी लम्बी कविता की पुस्तिका "  अर्धरात्रि है यह..."  पाकर लौटते वक्त मेरे साथ-साथ चल रहा था।
     इस समय वे ' दुनिया इन दिनों ' के संपादक हैं। इसके पूर्व वे ' इंडिया न्यूज़​ ' के संपादक थे। उनके कवि-व्यक्तित्व की तरह उनका संपादकीय-व्यक्तित्व औरों से भिन्न और विशिष्ट है। आज पत्रिकाओं के स्वरूप और उद्देश्य बहुत बदल गये हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और रविवार जैसी बुलंद पत्रिकाएं जब ढह चुकी थीं और पत्रकारिता ख़ासकर साहित्यकारिता में जो शून्यता पैदा हो गयी थी उसे हम बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे। ऐसे में आउटलुक, इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं आयीं और लोकप्रिय हुईं। उनकी लोकप्रियता देखते हुए धड़ाधड़ और भी कई साप्ताहिक और पाक्षिक पत्रिकाएं  आयीं। लेकिन इन समाचार पत्रिकाओं में साहित्य बहुत कम होता था। वह भी साहित्य के एलीट वर्ग के लिए ही होता था। तब पहली बार डॉ सुधीर सक्सेना ' इंडिया न्यूज़' लेकर आते हैं और समाचार के साथ-साथ साहित्य को इतनी जगह देते हैं कि उसमें नये और पुराने, स्थापित और संघर्षशील सभी साहित्यकारों के लिए गुंजाइशें निकल आती हैं। बेहद कम मूल्य पर इंडिया न्यूज़ पाठकों के पास पहुंचने लगीं। आश्चर्य यह था कि इस समाचार पत्रिका में आधे के क़रीब साहित्य और साहित्य की ख़बरें होने के बावजूद इसकी लोकप्रियता किसी भी व्यावसायिक पत्रिका से कम नहीं थी। बाज़ार से निष्कासित साहित्य को उन्होंने बाज़ार में प्रतिष्ठापित किया तो यह उनकी सूझ-बूझ, साहित्य-निष्ठा, संपादन -कौशल और भारत-भर के हिंदी और अन्य भाषाओं साहित्यकारों से उनके गहन सम्पर्क का सुपरिणाम था।इंडिया न्यूज़ के बाद पिछले कई वर्षों से वे दुनिया इन दिनों का संपादन कर रहे हैं और उसी साहित्य, विशेषत: कविता की पक्षकारिता के साथ। समाचारों की पत्रकारिता के समानांतर उनकी साहित्यकारिता मूल्यवान और प्राणवान है। शुद्ध समाचारीय पत्रकारिता में योगदान की दृष्टि से शहरों, व्यक्तियों और मुद्दों पर आधारित दुनिया इन दिनों की विशेष रिपोर्टें पाठकीय ज्ञान के लिए अत्यंत महत्व की साबित हुई हैं। ज़मीनी और जज़्बाती तरीक़ा अपनाते हुए दुनिया इन दिनों ने जो पत्रकारिता पेश की है वह अन्य व्यावसायिक पाक्षिक पत्रिकाओं के लिए अनुकरणीय है। इसका साहित्यिक और सांस्कृतिक कलेवर और सामग्री- सौष्ठव हर पत्रिका के लिए आदर्श है। पत्रकारिता और साहित्यकारिता दोनों में डा. सुधीर सक्सेना का योगदान अत्यंत प्रशंसनीय और प्रासंगिक है।
      व्यक्तिगत रूप से भी मैं उनका प्रशंसक और आभारी हूं। पिछले वर्ष मेरे जीवन की सबसे दुखद घटना घटी जब मेरी पत्नी की मृत्यु हो गयी। उन पर लिखी मेरी कविताओं को उन्होंने पूरे दो पृष्ठों में सम्मान और चित्र-सज्जा के साथ प्रकाशित किया। यह मेरी कविता और मेरे प्रति उनके प्रेम का ज्ञोतक है जैसा उन्होंने कभी कहा भी था। इसलिए उस दिन उनसे मिलकर जो प्रसन्नता हुई वह तो हुई ही, हमारा आत्मीय संबंध जिस तरह​ प्रगाढ़ हुआ वह मेरे लिए हर्षप्रद और आज के बेगानगी भरे समय में ढांढस बंधाने वाला भी रहा। विदा लेते वक्त उन्होंने कहा कि अगली बार जब वे बनारस आयेंगे, वे होटल में नहीं मेरे घर ठहरेंगे। उनका यह प्यार-भरा प्रस्ताव मेरे हृदय को पुलकित कर गया। उन्होंने बनारस पर मुझसे कुछ लिखने को भी कहा है। मैं जानता हूं वे मुझसे लिखवा ही लेंगे जैसे वे औरों से विभिन्न विषयों पर लिखवाते रहे हैं। लेखकों के आलस्य और काहिली को तोड़ने वाले और उनसे अपना मनचाहा लिखवा लेने वाले ही सच्चे और बड़े संपादक होते हैं। इस दृष्टि से भी डा. सुधीर सक्सेना एक बड़े और प्रेरक संपादक हैं।
     डॉ. सुधीर सक्सेना का संपादक-व्यक्तित्व जितना विराट है, उनका कवि-व्यक्तित्व भी उतना ही विशाल है। उनके अनेक काव्यसंग्रह समय-समय पर साहित्य जगत में समादृत और लोकप्रिय हुए हैं। वह चाहे " बहुत दिनों के बाद" हो, " समरकंद में बाबर " हो, " काल को भी नहीं पता " हो, " रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी " हो, " किरच-किरच यक़ीन " हो, " ईश्वर हां नहीं तो "हो या  " कुछ भी नहीं अंतिम " हो। उनकी प्रेम-कविताएं और लघु कविताएं गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। उन्होंने अनेक लम्बी कविताएं भी लिखी हैं। वे अपनी लम्बी कविताओं में देश-काल का एक पूरा परिदृश्य रचते हैं जिसमें यथार्थ की जटिलताओं को रखते और खोलते हैं। प्रश्न उठाते हैं और जवाब रखते हैं। समास्याओं को रखते हैं और समाधान सुझाते हैं। उनकी लघु कविताएं जहां सूक्ष्म कलात्मक प्रभाव छोड़ती हैं, लम्बी कविताएं ज्ञान-संवेदनाओं को झकझोरती लम्बा असर दिखाती हैं। "अर्धरात्रि है यह..." उनकी ऐसी ही लम्बी कविता है। यह लम्बी कविता ऐसे समय आयी है जब देश-काल की अंधेरा समेटे नारकीयता की ओर बढ़ रही हैं और डॉ सुधीर सक्सेना का कवित्व अपने पूरे निखार पर है। भाषा अत्यंत प्रखर और प्रवाहयुक्त, चेतना अत्यंत उच्च और परिमार्जित, दृष्टि अंधेरों को चीरकर सत्य का साक्षात्कार कराने वाली, संवेदना लोक जनकष्टों में उतरने वाली और प्रज्ञा  समाधान का संधान करने वाली। यह कविता सत्ताइस छोटे-बड़े खंडों में है। अर्धरात्रि यहां प्रतीक है हिंसा, उत्पीड़न, छल, असत्य, दमन, भ्रष्टाचार के अंधेरे समय का। देशव्यापी यह अंधेरा समय कितना भयावह है इसकी अनुभूति उनकी यह कविता पंक्ति-दर-पंक्ति कराती है। यह एक राष्ट्रीय त्रासदी की कविता है दुस्वप्नों से भरी हुई। जिन्हें समाज में अच्छाइयों का माहौल बनाना था, समता और बंधुत्व को बढ़ाना था और उजाले का परिवेश रचना था वही इस अंधेरी अर्धरात्रि के सूत्रधार हैं,  जनता की लड़ाई लड़ने वालों का बुरा हाल करने वाले, एक बार फिर संसार को अंधकार युग में ले जाने वाले। इसके सत्ताइस काव्य खंडों में अंधेरे का हर वह पक्ष है जिसमें हम और आप फंसे और धंसे हैं। लेकिन आख़िरी कविता हमें निराशा में नहीं छोड़ती, वह हम में एक उम्मीद जगाकर समाप्त होती है---संशय मत करो/ रात्रि है तो भोर है/...संशयात्मा विनश्यति पार्थ! विनश्यति संशयात्मा!!
  अर्धरात्रि है यह... मुक्तिबोध की "अंधेरे में" और धूमिल की "पटकथा" से भिन्न एक लम्बी कविता है। अंधेरे में और पटकथा में जीवन-जगत की त्रासदियों की प्रभाव श्रंखला है लेकिन उनमें वस्तुजगत के कथासूत्र नहीं हैं। वे एक अर्ध अमूर्त आर्ट के प्रभाव जैसी हैं। लेकिन, अर्धरात्रि है यह... श्रीकांत वर्मा के "मगध" और केदारनाथ सिंह के "बाघ" जैसी लम्बी कविता है। इस कविता में देश का भूगोल है, इतिहास है, मिथक है, लोक है, धर्म है, समाज है, संस्कृति है, राजनीति है, बाज़ार है और सब पर दृश्यमान अन्यायी अंधेरे का आवरण है। यह आवरण बहुत ठोस और पथरीला है। इसे पढ़ते हुए हम घायल होते हैं तो इसे लिखने के पहले और लिखते हुए कवि कितना घायल हुआ होगा यह सहज बोध होता है।
  डॉ सुधीर सक्सेना का साहित्यिक और पत्रकारीय योगदान और उपलब्धियां यहीं तक नहीं हैं। उनकी गद्य कृतियां भी नायाब हैं और पत्रकारिता की मिसाल भी। विदेशी कविताओं का उनका अनुवाद भी अनमोल है। उनके परिचय में ये सारी चीज़ें दर्ज़ हैं। 
       मेरे लिए वे मेरे अत्यंत प्रिय कवि और प्रेरक संपादक हैं। उनकी जो आत्मीयता मुझे प्राप्त है वह मेरी जीवन निधि है।

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वाराणसी 221002
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