भाजपा की लड़ाई भाजपाईयों से , कैसे होगा चुनावी बेड़ा पार?
न्यूज एक्शन। तीसरे चरण के लोकसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है। 23 अपै्रल को प्रत्याशियों की किस्मत ईव्हीएम में कैद हो जाएगी। जनादेश के रूप में ईव्हीएम में कैद होने वाली अपनी किस्मत को चमकाने पार्टी प्रत्याशियों से लेकर दल के पदाधिकारी और एक छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी जी जान से जुटा हुआ है। चाहत यही है कि किसी तरह चुनावी नैय्या पार लग जाए। मगर जिला भाजपा में भितरघात का खतरा मतदान तिथि नजदीक आने के साथ ही और बढ़ता जा रहा है। सूत्र बताते हैं कि संगठन के दो-तीन नेताओं की पर्दे के पीेछे की बगावत भाजपा प्रत्याशी के जीत के राह में रोड़ा अटकाने का काम कर रही है। भले ही ये नेता खुलकर बगावत नहीं कर रहे हैं। मगर भितरघात की राजनीति में अपने मोहरे फिट कर चुके हैं। भले ही ये भितरघाती नेता पार्टी के बैठकों में शामिल होकर अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के साथ जैसा भितरघात का खेल खेला गया था। ठीक उसी तरह लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी के साथ भी ठीक वैसा ही खेला खेला जा रहा है। अगर ऐसा ही हाल भाजपा में रहा तो कोरबा में कभी भी भाजपा पनप नहीं पाएगी। धीरे-धीरे जिला भाजपा में भितरघात का रोग गंभीर बीमारी का रूप लेते जा रही है। गुटबाजी से चारों विधानसभा में से तीन सीट में कमल मुरझा चुका है। अब लोकसभा चुनाव में भी भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर है। मगर कुछ भाजपाई ही पार्टी हित के बजाए स्व: स्वार्थ की राजनीति साधने में लगे हैं। भाजपा में गुटबाजी का लंबा इतिहास रहा है। जिला पंचायत के एक नेता से कुछ भाजपाईयों ने दस लाख रुपए संबंधित निकाय में उपाध्यक्ष की कुर्सी दिलाने लिया था। कुर्सी तो नहीं दिलाई, पैसे के लिए उल्टे घुमाने लगे। पार्टी आलाकमान से शिकायत के बाद रकम की वापसी हुई। इस घटना से हतास संबंधित नेता ने कांग्रेस का दामन थाम लिया था। गत विधानसभा चुनाव में जोगी कांग्र्रेस पार्टी से चुनाव लड़कर सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले प्रत्याशी ने सबसे पहले जिला भाजपा के एक पदाधिकारी से संपर्क किया था। मगर संबंधित पदाधिकारी ने उसे तवज्जो नहीं दी। लिहाजा जोगी कांग्रेस के उक्त नेता को कांग्रेस का दामन थामना पड़ा। शायद उक्त भाजपा नेता की सेटिंग हो चुकी थी। अपने खेमे के बजाए वह पंजा को मजबूती दे। यह मामला मैच फिक्सिंग की तरह ही था। इस तरह से जहां भाजपा मजबूत होकर विरोधियों को पछाडऩे में कामयाब हो सकती थी। उस मोर्चे पर कांग्रेस को फायदा मिला। इस तरह से जिला भाजपा में संगठन को मजबूत करने के बजाए दीमक की तरह कमजोर करने की कवायद कुछ नेता ही करने लगे हैं। वैसे भी एक पदाधिकारी नगद नारायण लेकर पार्टी में पद बांटने में खास प्रसिद्धि बना चुका है। चाहे पार्षद की टिकट दिलाने या संगठन में कोई पद दिलाने की बात हो, हर मामले में तोल-मोल की चर्चा राजधानी तक में है। ऐसे में भाजपा की चुनावी नैय्या कैसे पार होगी? यह बड़ा सवाल है। कहीं चुनाव के बाद यह न सुनने को मिले कि ‘हमें तो अपनो ने लूटा, गैरों में कहां दम था Ó। अगर ऐसी स्थिति से बचना है तो भाजपा को विरोधी से ज्यादा पार्टी के भीतर शामिल विरोधियों से निपटने की जरूरत है।