हरीश अड्यालकर : गुनगाहक हिरानो है…@ डॉ. सुधीर सक्सेना

डॉ. सुधीर सक्सेना

वक्त के साथ चीजें अक्सर मुर्झाती या निस्तेज होती हैं, लेकिन कुछ शख्सियतें ऐसी होती हैं, जिनकी खूबियां पंखुरियों की मानिंद आहिस्ता-आहिस्ता खुलती हैं और जिनके पार्थिव रूप में हमारे बीच नहीं रहने पर उनकी यादें समय के साथ चटख हुई जाती हैं…
हरीश अड्यालकर ऐसी ही शख्सियत थे। लंबा कद, तना हुआ इकहरा शरीर, आबनूसी नहीं, बल्कि सांवली रंगत, तीखे नक्श, चमकीली आंखें, चाल में किंचित लापरवाही-बेफिक्र कि कौन क्या कहेगा? धुन के पक्के। तमाम व्यसनों से परे, बस एक ही व्यसन कि नागपुर महानगर में कला, साहित्य और वैचारिकी के लिए ‘स्पेस’ बचा रहे। लोग आएं, एकजुट हों और अपनी भाषा, अदब और समाजवादी मूल्यों के लिए लड़ना सीख सकें। पैंट-शर्ट उनका बारहमासी परिधान था। मौसम के मुताबिक सूती या ऊनी पतलून और पूरी आस्तीन की शर्ट। मुद्दों पर संघर्ष के लिए वे हमेशा बांह चढ़ाएं तैयार मिलते थे और इसके लिए उन्हें आस्तीन के बटन खोलकर बांह चढ़ाने का दिखावा करने की जरूरत न थी।
हरीश अड्यालकर का जीवन-वृत्त अनेक संदर्भों को समेटता है। वे लोहिया के समर्पित अनुयायी थे। उनके ‘मनस’ की निर्मिति में डॉ. लोहिया के विचारों की गहरी और केन्द्रीय भूमिका थी। उनके सरोकार भी इसी की देन थे। वे एक अथक योद्धा थे, ऐसे योद्धा, जिसे किसी प्रशंसा या पारितोषित की चाह न थी। उन्होंने भाषा की लड़ाई लड़ी। नागपुर में लोहिया अध्ययन केन्द्र की स्थापना की। व्याख्यानमालाएं और संगोष्ठियां आयोजित कीं। अध्ययन केन्द्र को उन्होंने विचारों की मुक्त-संसद में बदल दिया, जहां देश के कोने-कोने से विचारक, पत्रकार-संपादक, लेखक-कवि, अध्येता आए। उन्होंने बरसोंबरस ‘सामान्य जन’ का प्रकाशन किया। चित्र प्रदर्शनियों और काव्य पाठों के लिए उनके द्वार सदैव खुले रहे। वे ट्रेड यूनियन आंदोलन से भी जुड़े रहे। आपातकाल में वे जुझारू नेता के तौर पर उभरे। सन् 1974 की ऐतिहासिक रेल-हड़ताल में उनकी भूमिका हम युवाओं के लिए प्रेरित और जेरे-जिक्र रही। हड़ताल में वे भूमिगत हो गये और प्रशासन को खूब छंकाया। अंतत: वे तब गिरफ्तार हुए, जब उन्होंने भूमिगत दौर से निकलकर रेल-यूनियन और इंकलाब जिंदाबाद के नारों से रेलवे स्टेशन को गुंजा दिया।
वे मुझसे उम्र में बड़े थे। करीब सत्रह-अठारह वर्ष बड़े। बड़े होने की मर्यादा उनमें थी और बडप्पन भी। यदि हम महाकोशल या तमिल-प्रांत के होते तो उन्हें ‘बड्डे’ या ‘अन्ना’ कह सकते थे, लेकिन हम सबने उन्हें प्राय: अड्यालकर जी ही कहा और उन्होंने इस ‘जी’ का ताउम्र मान रखा। जो उन्हें जानते रहे हैं, उन्हें जतलाने की जरूरत नहीं, लेकिन जो नहीं जानते, वे उन पर लिखे पैराग्राफों से अंदाजा लगा सकते हैं कि वे जीवट के कितने धनी थे। उनमें नेतृत्व के नैसर्गिक गुण थे, किन्तु वे साथ चलने वाले नेता थे, आडंबर से सर्वथा परे, सरल और साफगो। उनमें ‘एलीट’ के लक्षण न थे और कहें तो उन्हें ‘एलिटिसिज्य’ से चिढ़ थी। वे मंच के बजाय श्रोताओं के बीट बैठना पसंद करते थे और जरूरत पड़ने पर दरी बिछाने, कुर्सियां जमाने और बैनर टांगने जैसे काम करने में हिचक या हेठी अनुभव नहीं करते थे। उनकी कर्मठता और निस्पृहता मुझे बरबस ‘उत्तरार्द्ध’ के संपादक सव्यसाची की याद दिलाती है।
यादें चलचित्र की तरह होती हैं। अड्यालकरजी से जुड़ी यादों की रील भी लंबी है। वह हमें समय के गलियारे में बहुत पीछे ले जाती है। पीछे यानी सन् 70 का दशक। दशक का पूर्वार्द्ध। संभवत: सन् 73 का कोई शुरूआती माह। तब उनसे पहली भेंट हुई थी। शैलेन्द्र जी दैनिक ‘नवभारत’ में थे। महेश गुप्ता भी। प्रकाश दुबे ‘समाचार भारती’ में थे। धंतोली में उनका दफ्तर था। वहां लगे टेलीप्रिंटर आकर्षण और उत्सुकता का सबब थे। टेकड़ी पर साधारण से घर में भाऊ समर्थ कला साधना में लीन रहते थे। उमेश चौबे का कॉटन मार्केट में अपना छापखाना था। अपना प्रेस। गोपाल नायडू, विजय शंकर (नीलमवार) और जयशंकर पिल्ले एक ही इलाके मोहन नगर (गड्डी गोदाम) में रहते थे। हनुमंत नायडू भी। वे छत्तीसगढ़ से रिटायर होकर नागपुर आ बसे थे। विनायक कराडे रिजर्व बैंक में थे। ताराचंद खांडेकर, कारा वाल्देकर और मंगलेश मुजमेर भी। तभी एक सांझ ‘अभिव्यक्ति’ का गठन हुआ। लोहिया अध्ययन केन्द्र और अभिव्यक्ति के बैनर तले गोष्ठियों का सिलसिला शुरू हुआ। ‘अभिव्यक्ति’ के दो अंक निकले, जिनके आवरण कला महाविद्यालय के प्राध्यापक शरद धोमणे और प्रतिभाशाली छात्र उमेश पवनकर ने बनाये।
नाम गिनाने और संदर्भ बताने को निष्प्रयोजन न मानिये। मकसद यह बताना है कि नागपुर में सन् 70 के दशक में एक वृहत्तर परिवार जुट गया। किसी बहाने या यूं ही हम लोग एकत्र होते। विमर्श, कविता व कहानी पाठ का दौर चलता। किताबों और पत्रिकाओं का आदान-प्रदान होता। गरमागरम बहसें होतीं। मुझे याद है कि ‘अभिव्यक्ति’ के दूसरे अंक का लोकार्पण मेडिकल कॉलेज के प्राइवेट वार्ड में हुआ था, जहां अग्रज कवि रामविलास शर्मा पांव से फैक्चर के बाद इलाज के लिए भर्ती थे। कहना न होगा कि उपरोक्त नामों में से अधिकांश जन उपस्थित थे। यह एक नया-नवेला उपक्रम था। लघु पत्रिका आंदोलन और उसकी सार्थकता पर बात हुई। रामविलास जी ने कविताएं पढ़ीं और छोटा-सा भाषण भी दिया। वे अभिभूत थे। मैंने मुक्तिबोध की कविता ‘भूल गलती’ का वाचन किया। चित्रकार शरद ढोमणे ने इसी कविता पर आवरण के लिए चित्र तैयार किया था। इस कार्यक्रम की परिकल्पना हरीश अड्यालकर और विनायक कराडे की थी। इन दोनों के ही सांझा विमर्श से हम लोगों ने देशी-विदेशी कवियों की कविताओं पर आधारित कविता-पोस्टर तैयार किये। व्यंग्यकार शरद जोशी ने उपक्रम को मुक्तकंठ सराहा।
हरीश भाई का दायरा बड़ा था। समय के साथ वह वृहद से वृहत्तर होता गया। लेखकों, कवियों, विचारकों-कलाकारों को तो छोड़िये, उसमें नये चेहरे जुड़ते गये। उनके साथ कुछ अविस्मरणीय उपक्रम तो किये ही, कुछ यादगार शामें भी बीतीं। हैदराबाद से आये ‘कल्पना’ के संपादक मंडल के सदस्य ओमप्रकाश निर्मल अचानक एक शाम नागपुर आये। इमर्जेन्सी के स्याह दिन थे वे। प्रोग्राम किसी सभागार में मुमकिन न था। अंतत: हम सब इतवारी के एक साधारण से चाय के ठीहे पर जुटे। वहीं हमने कविताएं पढ़ीं, मुट्ठियां तानीं और इमर्जेन्सी के खिलाफ जूझने का संकल्प लिया। निर्मल जी अपने साथ हमारी कविताएं भी ले गये। मेरी दो कविताएं ‘कल्पना’ में छपीं जरूर, लेकिन इमर्जेन्सी खत्म होने के बाद सन् 78 के शुरू में। ऐसी ही एख शाम अड्यालकरजी के अग्रज अनिकल कुमार के भोपाल से आने पर बीती। अनिल कुमार ने भोपाल-विदिशा के मित्रों की सक्रियता की जानकारी दी। कविताएं सुनीं-सुनाईं और हम जैसे उदीयमानों की पीठ थपथपाई। मुक्तिबोध व्याख्यानमाला की योजना बनी तो उन्हें संचालन का जिम्मा मुझे सौंपा। वे अपनी तरह से टीम तैयार कर रहे थे, प्रतिबद्ध, मेहनती और समर्पित टीम। सूत्र अपने हाथों में केंद्रित रखने के वे हिमायती न थे। सामूहिकता और टीम-वर्क में उनका गहरा यकीन था। वे दायित्व ‘डेलीगेट’ करते थे। बहरहाल, हमने उसे विचार का नाम दिया। इनमें विजय तेंडुलकर, शरद जोशी, यदुनाथ थत्ते, गणेश मंत्री आदि ने शिरकत की।
अड्यालकर जी आजीवन हमारे फ्रेंड फिलास्फर एण्ड गाइड रहे। उनके कारण अलग-अलग संकायों के लोग परस्पर जुड़े। क्रांतिचेता वेणुगोपाल का व्याख्यान हुआ तो नागपुर के महापौर रहे अटल बहादुर सिंह ने अध्यक्षता की। रघु ठाकुर, कुरबान अली, जयशंकर गुप्त… कितनों के व्याख्यान हुए। जेएसबी नायडू की चित्र-प्रदर्शनी हुई। श्रोताओं में संजय बुरडकर, सुरेशबाबू अग्रवाल से लेकर कृष्ण नागपाल, वसन्त त्रिपाठी तक।  ‘ईश्वर, हां, नहीं…तो’ का विमोचन लोहिया अध्ययन केन्द्र के सभागार में हुआ। वजह कि समाजवादी चेतना और समकालीन भावबोध और लेखन से परिचय नागपुर में हुआ था और हरीश अड्यालकर, विनायक कराडे और प्रकाश दुबे की त्रयी सरोकारों से जुड़ने की निमित्त बनी। नागपुर मेरा हेलीपैड रहा। अड्यालकरजी ने उड़ने का हौसला दिया। वे ऐसे शख्स थए, जिन्हें अपनों की उड़ान देखकर सुख मिलता था।
सन् 80 और 90 के दशक बेतरह संघर्ष, भटकाव, बेहद व्यस्तता में बीते। अड्यालकर जी से संबंध टूटा तो नहीं, लेकिन व्यतिक्रम जरूर हुआ। नई सदी में उनसे तार फिर जुड़े। नागपुर जाने का सिलसिला फिर शुरू हुआ। वे साठ पार के होकर भी उत्साह से लबरेज थे। आयोजन और ‘सामान्य जन’ मानो उनकी प्रतिज्ञाएं थीं। उनका आग्रह टालना कभी मुमकिन नहीं रहा। रचनात्मक सहयोग का क्रम बना रहा। नागपुर जाता तो फोन खटखटाने पर उनकी आत्मीयता से छलकती आवाज आती। नियत समय पर घड़ी के कांटों से होड़ लेते वे लोहिया अध्ययन केंद्र में मुलाकात के लिए मौजूद मिलते। एक-दो बार उन्होंने अगवानी के लिए टीकाराम को स्टेशन भी भेजा। उनका फोन अक्सर औचक आता। आलेख या किसी प्रसंग के लिए तगादा। ‘इंडिया न्यूज’ और ‘दुनिया इन दिनों’ से वे जुड़े रहे। अनौपचारिक सलाहकार, सजग पाठक और लेखक की हैसियत से। उन्होंने कभी-कभार लिखा भी और अपने मित्रों को रचनाएं भेजने को प्रेरित भी किया।  उन्हें आडंबर, अधिनायकवाद, सांप्रदायिकता, स्वेच्छाचारिता और जातिप्रथा से चिढ़ थी। उन्हें ठकुरसुहाती भी नहीं सुहाती थी। वे चौखंबाराज की बातें करते थे। जार्ज फर्नांडिस और मधु लिमये की बातें करते थे। लोहिया के विचार उनके साथ अंत तक बने रहे। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी रहा। खोट और खुरंट से परे। उन्होंने अत्यल्प लिखा, लेकिन जो भी लिखा प्रामाणिकता से। मुझे याद पड़ता है कि उनका एक नाटक मैंने ‘नागपुर स्टार’ साप्ताहिक में छापा था। यह सन् 1976 की बात होगी। यदि मेरी याददाश्त ठीक काम कर रही है, तो नाटक का शीर्षक था : ‘यूनियन जिंदाबाद।’ मेरे आग्रह का मान रखते हुए उन्होंने मेरे बारे में एक संस्मरणात्मक आलेख सन् 2007-08 में लिख भेजा था, जो कहीं फाइलों में गुम है।
पृथ्वी एक निश्चित अवधि के लिए हमारा घर में होती है। यह सत्य सबके लिए सत्य है। अड्यालकरजी ने सक्रिय जीवन जिया। वे शतायु से सत्रह सोपान पहले ही विदा हो गये। उन्होंने 83 वसन्त देखे यानी 83 पतझड़ भी। ऋतुओं से वे अप्रभावित रहे। न तो वसंत में बौराये और न ही पतझड़ में उदास हुए। मायूसी, थकान और हताशा उनके लिए अजनबी थी। उनका यकीन समवेत प्रयासों में था। सतत और अथक प्रयासों से उन्होंने नागपुर में कला-साहित्य और वैचारिकी के लिए जीवंत ‘स्पेस’ रचा था। उनके जाने से एक ‘रिक्तिका’ बनी है। वे गुणी थे, किन्तु गुणी से अधिक ‘गुनगाहक’ थे। उनके गमन से हमने एक योद्धा और गुणी-गुनगाहक हिरा दिया है।

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