राजनीति @ डॉ. सुधीर सक्सेना
तर्जे- सियासत
महाराष्ट्र : प्याली में तूफान या….?
डॉ. सुधीर सक्सेना
फिलवक्त महाराष्ट्र अशांत हैं; सामाजिक और राजनितिक दोनों दृष्टियों से अशांत। यह अशांति वहां गहराती जा रही है। एक ओर मनोज जरांगे पाटिल का आंदोलन और दूसरी ओर लोकसभा के चुनावी नतीजों के बाद बनते- बिगड़ते सियासी समीकरण। सबकी प्रतिष्ठा दांव पर है। न सिर्फ मोदी और शाह, बल्कि उनके क्षेत्रीय क्षत्रप देवेन्द्र फडनवीस के लिए करो या मरो का सवाल है। यही स्थिति एकनाथ शिंदे और अजित पवार की है। उनके समक्ष अस्तित्व का विषम संकट हैं। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के लिए यह उनके जीवन की कठिनतम अग्निपरीक्षा है। महाराष्ट्र की राजनीतिक रणभूमि का काबिले-गौर और दिलचस्प पहलू यह है कि हर योद्धा आहत है और व्रणों, दंश और पीड़ा के साथ जी रहा है। धुकधुकी सत्ता पक्ष और प्रति-पक्ष दानों शिविरों में है, लेकिन सत्ता शिविर यानि महायुति के अधिपतियों को यह डर सता रहा है कि कहीं उनके कुछ योद्धा बहिर्गमन कर प्रतिपक्ष यानि महागठबंधन के शिविर में न चले जाए।
इसमें शक नहीं कि महाराष्ट्र के नतीजे अप्रत्याशित रहे हैं। बीजेपी को ऐसे परिणामों की कतई उम्मीद नहीं थी। जाहिर है कि सहयोगी दल भी इसी गुमान में थे कि उनका बाल बांका न होगा। मगर नतीजे अलहदा आये। जिसे बीजेपी लगातार सियासी बट्टे-खाते में डाल रही थी, वहीं कांग्रेस सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी। सबसे बड़ी बात यह कि महाराष्ट्र के मतदाताओं ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे की दांव पर लगी प्रतिष्ठा की लाज रख्री। यकीनन नतीजो ने इन दोनों नेताओं के लिए संजीवनी का काम किया। नतीजतन उद्धव की महत्वाकांक्षाएँ जहाँ नये सिरे से कुलांचे भरने लगी, वहीं अस्सी – पार के शरद पवार नये सिरे से मोर्चा बांधने की मुहीम पर निकल पड़े हैं।
दो घाटों के बीच बह रही महाराष्ट्र की राजनीतिक धारा का प्रवाह इन दिनों काफी तेज है। इस प्रवाह को और गति देने का काम किया 15 जुलाई को काबीना मंत्री छगन भुजबल की शरद पवार से बैठक ने। छगन कभी बाल ठाकरे तो कभी शरद पवार के सहयोगी रह चुके हैं और उनकी ऊंगली सूबे की नब्ज पर रहती है। 15 जुलाई को छगन मुंबई में ‘साहेब’ के सिल्वर ओक स्थित आवास पर गये। महारथी शरद और रथी छगन की यह मुलाकात करीब 90 मिनट चली। बताया गया कि छगन चाहते हैं कि पवार साहेब मराठा और ओबीसी के आरक्षण पर जारी गतिरोध को हल करने में मदद करें। इसके एक दिन पहले ही महा विकास आघाड़ी ने आरक्षण पर सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार किया था। आरक्षण को लेकर मराठा बिरादरी और ओबीसी समुदाय के बीच अर्से से तलवारें खिंची हुई हैं। मराठा जहाँ ओबीसी के अंतर्गत आरक्षण चाहते हैं, वहीं ओबीसी चाहते हैं कि उनके कोट से छेड़छाड़ नहीं हो। भुजबल ने कहा कि वह बहैसियत मंत्री या सियासत के लिए पवार साहेब से मिलने नहीं गये, बल्कि भयावह संकट के समाधान के लिए आये हुए हैं। स्थिति इतनी विक ट है कि ओबीसी और मराठे आमने-सामने है। वे एक दूसरे के प्रतिष्ठानों का बायकॉट कर रहे हैं। पवार ने अखबारनवीसों से कहा कि उन्हें सरकार के प्रतिनिधियों की मराठा लॉबी के मनोज जरांगे पाटिल और ओबीसी-प्रतिनिधि लक्ष्मण हाके से बातचीत के ब्यौरे की कोई जानकारी नहीं है, लिहाजा वह तुरंत हस्तक्षेप नहीं कर सकते। किंतु वह मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से इस बाबत चर्चा कर बातचीत से सुलह की कोशिश करेंगे।
अपने राजनीतिक फैसलों को लेकर चर्चित रहे छगन भुजबल ने यह भी कहा कि इस मुलाकात में कोई लुकाछिपी नहीं है और वह इस पेचीदा संकट के समाधान के लिए किसी के भी दरवाजे पर जा सकते हैं। लेकिन इस बैठक ने कयासों के मद्धिम अलाव में सूखी छिपटियां डाल दी। छगन भुजबल ने कैफियत दी कि वह इस बैठक के बारे में अजित पवार और अन्य एनसीपी नेताओं को जानकारी देकर मिलने आये हैं। मगर यह किसी से छिपा नहीं हैं कि वह पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से खुश नहीं हैं। वजह यह कि उन्हें नाशिक से टिकट नहीं दिया गया और न ही उनके पुत्र को उपकृत किया गया।
जहां तक भुजबल को लेकर औरों के रवैये का प्रश्न है, भुजबल विवादास्पद नेता के तौर पर उभरे हैं। पार्टी और महायुति के भीतर भी उन्हें शक की नजर से देखने वालों की कमी नहीं है। आरक्षण के मुद्दे पर परिदृश्य में तेजी से उभरे जरांगे पाटिल भुजबल की भूमिका से खासे खफा हैं, वह कहते भी हैं कि विस्फोटक स्थिति के लिये भुजबल जिम्मेदार हैं। क्योंकि भड़काऊ भाषा का प्रयोग सबसे पहले उन्होंने ही किया। उन्होंने उसी प्लेट में थूका, जिसमें खाया। डिप्टी सीएम देवेन्द्र फडनवीस ने उन्हें जेल जाने से बचाया और काबीना मंत्री बनाया, लेकिन उन्होंने उन्हें भी नहीं बख्शा। उनके बारे में उन्होंने अनापशनाप बोला और पीएम मोदी पर भी लांछन लगाया।
दिलचस्प तौर पर जरांगे पाटिल उपमुख्यमंत्री फडनवीस के बारे में भी अच्छी राय नहीं रखते। वह फडनवीस को संकट के समाधान में रोड़ा मानते हैं। गौरतलब है कि जरांगे पाटिल ने 13 जून को मराठा आरक्षण के मुद्दे पर अपना अनिश्चितकालीन अनशन एक माह के लिए टाल दिया था। तदंतर उन्होंने राज्य सरकार को 20 जुलाई तक का अंतिमेत्थम दिया। समस्या के हल नहीं होने से स्पष्ट है कि क्षुब्ध जरांगे पाटिल कोई ऐसा कठोर कदम उठा सकते हैं जो सरकार को उलझन और परेशानी में डाल दे। वह राजधानी मुंबई में लंबा कूच पर विचार कर रहे हैं और राज्य विधानसभा की सभी 288 सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने पर भी।
मुंबई में पवार साहेब और भुजबल की भेंट से एक दिन पहले पवार परिवार के दुर्ग बारामती में बड़ा जमावड़ा हुआ। इस जमावड़े ने इस बात की पुष्टि कर दी कि चाचा-भतीजे के बीच सुलह- समझौते की कोई संभावना नहीं है। 14 जुलाई को बारामती में उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने अपने विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंका। इस मौके पर प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल, सुनील तटकरे और धनंजय मुंडे समेत एनसीपी के प्रमुख नेता उपस्थित थे। उल्लेखनीय है कि अजित पवार सूबे के वित्तमंत्री भी हैं। उन्होंने लोगों से विपक्ष के बहकावे में नहीं आने की अपील की और संविधान में संशोधन जैसी बातों को कोरी गप्प बताया। उन्होंने बताया कि उन्होंने अमित शाह से चीनी का समर्थन मूल्य बढ़ाने का आग्रह किया है। अजित इस सारी कवायद का मकसद दरअसल अपनी सीट बचाना है। काका शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के हाथों अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार की हार का गम उन्हें साल रहा है। वह सन् 1997 से अब तक बारामती से सात बार विधानसभा के लिए चुने गये हैं, लेकिन शरद पवार ने अपने पालित भतीजे को उसी के किले में मात देने की कसम सी खा रखी है, लिहाजा अजित फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। शरद पवार के ताबड़तोड़ दौरों और गांव-गांव में सघन जनसंपर्क ने उनके माथे पर सलें डाल दी हैं। उन्हें यह भी पता है कि चाचा शरद उनके भतीजे युगेन्द्र पवार को बढ़ावा दे रहे हैं, और कोई ताज्जुब नहीं कि सन्निकट विधानसभा चुनावों में मुकाबला युगेन्द्र और अजित पवार के बीच हो।
दोनों पक्षों के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने महायुति के घटकों के मध्य समरसता और विश्वास को तार-तार कर दिया है। आरएसएस के मुखपत्र आगेर्नाइजर में छपे लेख पर यकीन करें तो सूबे में हार का दोषी बीजेपी के कार्यकर्ता एनसीपी (अजित) को मानते हैं। सांसद सुप्रिया सुले ने इसे महायुति का अंदरूनी मामला बताया। अलबत्ता माना जा रहा है कि बीजेपी अजित पवार से पिंड छुड़ाना चाहती है। इस बीच एनसीपी (अजित) को झटके लगने का दौर जारी है। 17 जुलाई को पिंपरी चिंचवड़ के प्रभावशाली नेता अजीत गव्हाणे समेत बीसेक स्थानीय नेताओं के शरद पवार धड़े में शामिल होने से एनसीपी (अजित) की स्थिति कमजोर हुई है। माना जा रहा है कि गव्हाणे भोसारी से बीजेपी के महेश लांडगे के खिलाफ शारद-धड़े के उम्मीदवार होंगे। इस बीच महाराष्ट्र पब्लिक सिक्यूरिटी बिल ने जहाँ सामाजिक कार्यकर्ताओं े और बौद्धिकों की भुकुटि में बल डाले हैं वहीं कोल्हापुर में चलो विशालगढ़ मार्च ने नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। फलत: नवनिर्वाचित कांग्रेस सांसद छत्रपति शाहूजी महाराज गजपुर और मुस्लिम वाड़ी के पीड़ितो से मिले। गौरतलब है कि मार्च का आह्वान बीजेपी एमपी संभाजीराजे छत्रपति ने किया था। बीजेपी को यकीन है कि ऐसी घटनाओं से ध्रुवीकरण उसके पक्ष में होगा, जबकि इसे बूमरैंग मानने वालों की भी कमी नही है। बहुत मुमकिन है कि तूफान प्याली की कोरों तक सीमित नहीं रहे और उसका असर प्याली की कोरों के बाहर भी नजर आये।