रेत चोरीः प्रशासन की मंशा पर संदेह, राजसात क्यों नहीं होते वाहन? क्यों नहीं की जाती पुलिस में रिपोर्ट?

कोरबा 4 अक्टूबर। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 15 जून से 15 अक्टूबर तक रेत उत्खनन पर रोक लगा रखी है। लेकिन कोरबा शहर सहित जिले भर में एक भी दिन अवैध रेत खनन और तस्करी पर रोक नजर नहीं आई। आखिर रेत तस्कारों के हौसले इतने बुंलद क्यों हैं? उनमें कार्रवाई का भय क्यों नहीं? क्या उन्हें राजनैतिक-प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त है?
जून माह से लेकर अब तलक एक भी दिन ऐसा शायद ही गुजरा होगा, जिस दिन एन.जी.टी. के आदेश को ठेंगा दिखाकर रेत का अवैध खनन और तस्करी नहीं की गयी हो। यहां तक की रेत खदानों में भारी मशीनें लगाकर रात के समय पचास-पचास हाईवा और पचासों ट्रैक्टर रेत निकाले जाते रहे। सवाल यही है, कि प्रशासन तंत्र कहां विफल हुआ, जिसके चलते रेत चोरों और तस्करों का हौसला इतना बुलंद हुआ?
मामले की तह में जाने के प्रयास में अनेक ऐसे तथ्य सामने आये, जो प्रशासन की मंशा पर संदेह पैदा करते हैं। मसलन खनिज और राजस्व अधिकारी ही नहीं, स्वयं कलेक्टर ने दबिश देकर रेत चोरी पकड़ी। लेकिन कार्रवाई क्या हुई? चंद रूपयों का जुर्माना और हाथों-हाथ रेत चोरी करते पकड़े गये वाहनों को छोड़ दिया गया। इससे तस्करों पर क्या असर होगा? सात सौ की रेत पांच हजार और चार हजार की रेत बीस हजार में बेचने वाले तस्करों के लिए पांच-दस हजार का जुर्माना तो कोई महत्व ही नहीं रखता। सवाल यहीं उठता है कि रेत चोरी करते पकड़े गये वाहन राजसात क्यों नहीं किये जाते? तस्करों के संसाधनों को जाम करने के लिए पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं की जाती? पुलिस और न्यायालयीन कार्रवाई में कम से कम ये वाहन दो सप्ताह से पांच सप्ताह तक खड़े रह सकते हैं, जिससे स्वाभाविक रूप से रेत चोरी में कमी आयेगी। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि रेत तस्करों को परोक्ष रूप से प्रशासन का संरक्षण और शह प्राप्त हो सकता है?


मामले की पड़ताल के दौरान एक और पहलू सामने आया। पता चला कि चोरी की रेत सबसे अधिक शासकीय निर्माण कार्यों में खपायी जा रही है। राजनीति का लबादा ओढ़कर ठेकेदारी करने वाले शहर के कुछ लोगों के निर्माण कार्यों में अस्सी फीसदी रेत की खपत हो रही है। यानि रेत चोर नेताओं के लिए चोरी कर रहे हैं। शासकीय निर्माण कार्यों के लिए चोरी कर रहे हैं। निजी क्षेत्र में रेत की खपत महज 20 प्रतिशत हुई है। समझा जा सकता है कि रेत- चोरों पर, शहर के नामचीन नेता जिनके आका बने बैठे हैं, उन पर क्या कार्यवाई होगी?
इधर कलेक्टर ने टास्क फोर्स गठित किया है। रोज ही दो-चार वाहन चोरी के रेत के साथ पकड़े जाते हैं। इनमें आर टी ओ का पंजीयन नंबर प्रदर्शित नहीं होता। फिर भी न तो मामला आर टी ओ को दिया जाता और ना ही पुलिस को। वाहनों का पंजीयन है, तो नम्बर क्यों नहीं लिखा होता? यह कोई नहीं पूछता। वाहन पकड़ने के बाद यह भी नहीं पूछा जाता कि इससे पहले वे कितनी चोरी कर चुके हैं और कहां-कहां रेत की सप्लाई करते रहे हैं? चोरी को जायज ठहराने के लिए यह तर्क भी सुनने में आता है कि रेत खनन पर पूरी रोक लग जाने से विकास प्रभावित होगा। अगर ऐसा है तो कुछ खास लोग ही रेत चोरी कर विकास के संवाहक क्यों बनेंगे? फिर तो हर आम और खास का इस विकास में भागीदारी का अवसर देना चाहिये। पर ऐसा है नहीं। कुछ खास लोग ही पूरी दादागिरी के साथ विकास की जिम्मेदारी उठा रहे हैं। बड़ी बात यह भी कि वाहन पकड़े जाते हैं लेकिन रेत तस्कर नहीं पकड़ा जाता। रेत खदानों में गुण्डागर्दी करने वाले तस्कर का नाम तक कहीं नहीं आता। सवाल तो बनता हैं कि श्रीमंतों, इन रेत तस्करों से आपको इतनी हमदर्दी क्यों हैं? इन्हें जनता के सामने बेनकाब क्यों नहीं करते? वैसे भी जन-जन की जुबान पर इन चोरों तस्करों का नाम है। फिर आपकी जुबान पर इनका नाम क्यों नहीं आता?

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