याद@त्रिजुगी कौशिक
स्मृति शेष : त्रिजुगी कौशिक ……..प्रथम पुण्यतिथि
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कौशिक भाई बहुत दिन हुए साथ – साथ
आवारा जीवन जिए…….. विजय सिंह
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इन दिनों उनकी कविताएं वर्णमाला के अक्षर बाँट रही हैं पहाड़ों को, खेतों को, पगडंडियों को
सोमारू, सुकलू और फूलमती जैसी असंख्य
बस्तरियों की निश्छल हँसी में आप उन्हें देख सकते हैं
कौशिक भाई,
इन सब से कभी फुरसत मिले तो
इधर आओ ,सीरासार चौक के पुराने रथ में बैठे – बतियाए, साथ – साथ जाम टकराये, साथ – साथ हँसे, साथ – साथ रोए
बहुत दिन हुए
कौशिक भाई ,आओ
शहर की गलियों में साथ – साथ भटके
बहुत दिन हुए
साथ – साथ
आवारा जीवन जिए…..
विजय सिंह
यह कविता मैंने बहुत पहले कौशिक भाई के लिये लिखी थी ! तब मुझे नहीं मालूम था कि जिन्हें आने के लिए मैं निवेदन कर रहा हूँ, लानत – मानत भेज रहा हूँ वह एक दिन सचमुच नहीं आने के लिए मुझसे, हम सब से बहुत दूर चले जायेंगे ….त्रिजुगी कौशिक को छत्तीसगढ़ की रचना बिरादरी में कौन नहीं जानता.. मृदुभाषी ,मदद के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले हंसमुख , कौशिक भाई छायाकार ,कवि, नाट्य लेखक ,इतिहासकार ,लोक मर्मज्ञ कौशिक भाई की छत्तीसगढ़ साहित्य समाज में एक अलग प्रतिष्ठा रही है लेकिन मेरे लिए तो कौशिक भाई सब कुछ थे, बड़े भाई , दोस्त, दुश्मन ..सब कुछ ….छत्तीसगढ़ की रचना बिरादरी को भी पता था कि विजय और कौशिक को कोई अलग नहीं कर सकता… लेकिन इस काल के आगे मेरी क्या बिसात ….. वर्षो पहले जब मैंने लिखना प्रारंभ किया था…. या कहूँ लिखने – पढ़ने की कोशिश कर रहा था.. उन्हीं दिनों मैंने एक साहित्यिक पत्रिका में एक कविता पढ़ी —
ओ, जंगल की प्यारी लड़की / ओ, जंगल की बावरी लड़की /तुम्हारे गले में / लोकगीतों की लय है / पांवों में आदिम थिरकन है / तुम्हारा जीवन उन्मुक्त छंद है / तुम्हारी हँसी में / पक्षियों का कलरव है / तुम्हारी आँखों में / हरा – भरा जंगल है / मैं इन्हीं आँखों से देखना चाहता हूँ / दुनिया हरी – भरी….
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साथ में कवि का नाम त्रिजुगी कौशिक के साथ सोहन बाबू वाली पार्षद गली जगदलपुर का पता लिखा था! इस कविता ने मुझ पर इतना असर किया कि पढ़ते ही मैं उस पते की जगह पर ढूँढंते हुए कवि से मिलने पहुंच गया… जंगल की प्यारी लड़की की आँखों से दुनिया को हरी – भरी देखने वाले कवि, अन्जान कवि से मिलने पहुंचा था लेकिन मुझे क्या पता था जिस कवि से मैं पहली बार मिलने जा रहा हूँ वह मुझे अपने साथ जीवन भर के लिए जोड़ लेगा… कौशिक भाई से पहली बार मिलते हुए मैं डरा नहीं ..मैंने उन्हें बताया कि आप की कविता पढ़कर आपसे मिलने आया हूं …..और मैं भी कविता – लिखता पढ़ता हूँ .मैंने उन्हें अपने बारे में बताया . यह सुनकर वे बहुत खुश हुए उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया जिस आत्मीयता ,और अपनेपन से कौशिक भाई ने मुझसे बात की उस दिन मेरा सारा डर जाता रहा… अन्यथा इसके पहले जगदलपुर के कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखक – कवियों से पहली बार मिलकर मैं डर गया था….लगा था साहित्य और सृजन की दुनिया मुझ जैसे लोगों के लिए नहीं है…. बहरहाल, कौशिक भाई से वह पहली मुलाकात ने मुझे कहीं अदंर तक रचना जगत से और जोड़ा उस दिन उनसे मिलकर लगा रचना की दुनिया इतनी बुरी भी नहीं है जैसा कि मैं मान कर चल रहा था…. कौशिक भाई ने पहली मुलाकात में ही मुझे कुछ किताबें पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए दी …उन्होेंने बताया कि वे जनसम्पर्क विभाग में वरिष्ठ छायाकार पद में कार्यरत हैं ….कौशिक भाई लगभग 15 साल जगदलपुर में अपनी नौकरी रहे जब तक जगदलपुर में वे थे सब कुछ उनके जीवन में अच्छा था! बिलासपुर तबादले के बाद जैसे उनके जीवन में विपत्ति ने घर बना लिया था ..कुछ कुछ परेशानियां जीवन में आती रही लेकिन उन्होंने कभी किसी पर यह जाहिर नहीं होने दिया…उनका लेखन,फोटोग्राफी बदुस्तर जारी रहा.. फिर एक दिन ट्रक एक्सीडेंट नें तो उनकी पूरी दुनिया ही बदल दी… इस भयानक एक्सीडेंट में वह बच तो गये लेकिन एक पैर गवांकर…. एक्सीडेंट के बाद पूरे एक साल वे बिस्तर में रहे… फिर स्वस्थ होकर, नकली पैर लगाकर… फिर से अपनी जीवनचर्या में लौट आये थे कौशिक भाई… उन्हीं दिनों उनकी पहली कविता किताब ” ओ, जंगल की प्यारी लड़की ” छप कर आई.. अपने पहले संग्रह को कौशिक भाई ने मुझे समर्पित किया था… अपने पहले संग्रह छपने के बाद उन्होंने मुझे पत्र लिखा… पत्र के कुछ अंश
प्रिय भाई
विजय सिंह
संग्रह भेजना है तुम्हें …कार्यालयीन कार्यो की वजह से कुछ भी मन मुताबिक कर नहीं पा रहा हूँ …अब संग्रह तुम्हें कैसे नहीं भेजूँगा… संग्रह को जिन लोगों को समर्पित किया हूँ ..उन मित्रों में तुम्हारा ” ही ” नाम है! वही दिखाना चाहता था! संग्रह छोटी – दुबली पतली काया की ” लड़की ” की तरह है क्योंकि शीर्षक में भी जंगल की ‘लड़की ‘ ही है । यार, लड़कियों से प्रेम करने के मुद्दे में मैं भी कम नहीं …..यह बात किसी से कहना नहीं ….वरना लोग कहेंगे ” हीरो” विजय के सोहबत का असर है… भाई मेरे, यदि तुम जल्दी से अपना संग्रह नहीं निकालोगे तो मैं तुम्हारी पहली संग्रह निकलने के पहले दूसरी नहीं निकालूँगा… जानम, समझा करो… दूसरी संग्रह प्रेमिका की तरह नहीं ,पत्नी की तरह मोटी होगी… क्या है मित्र मैं जीता हूँ ….जीने के लिए.. थोड़ी थोड़ी पीता हूं… लेकिन पैग दो ही बनाता हूं …एेसे समय में विजय को कैसे भूल सकता हूं……
कौशिक भाई, मुझे कभी भूल नहीं सकते थे ..और कब मैं कौशिक भाई को भूल पाया… कौशिक भाई ने जीवन जीवन से जूझना सीखाया…. सूत्र को खड़ा करने में कौशिक भाई ने अपना सब कुछ लगा दिया… एक्सीडेंट के बाद भी सूत्र सम्मान के सभी कार्यक्रमों में कौशिक भाई आगे ही रहते थे… मैं उन्हें समझाया करता कौशिक भाई आप चुपचाप एक जगह बैठा करो… लेकिन वह कहाँ मानने वाले एक …बैनर टांग रहे हैं.. तो कभी कार्ड बांटने निकल गये… दौड़ – दौड़कर फोटो खीचने में तल्लीन… मैं उन्हें कई बार डाँटता…. लेकिन उन्हें मेरी डांट अच्छी लगती…. लेकिन एक्सीडेंट के बाद दस साल तक पैर के दर्द उन्हें चैन से जीने नहीं दिया… लेकिन अपने दर्द को वह कभी किसी को नहीं बताते.. हमेशा.. हंसते… पहले की तरह साहित्य -रचना की दुनिया में सक्रिय रहने वाले कौशिक भाई को दर्द में ली जाने वाली दवाईयों ने अदंर से खोखला कर दिया था… और आखिर में इसी दर्द ने उन्हें हमसे छीन भी लिया! कौशिक भाई, जगदलपुर से बिलासपुर जाने के बाद अकेले से हो गये थे.. उनकी तमाम चिट्ठियों में यह दर्द झलकता था… हांलाकि जगदलपुर से बिलासपुर काफी दूर है लेकिन इसके बावजूद वे कभी भी जगदलपुर आ जाते मैं बिलासपुर पहुंच जाता… और हम मिलकर जाम टकराते… आवारा सा जीवन जिते लेकिन अब तो यह सब एक सपना सा रह गया है….. कौशिक भाई….