कविता @ सरिता सिंह
प्रस्तुति-विजय सिंह
01- समय की आवाज
यह समय कहता है
चुप रहो
बिना बोले
सुनो
सदाओ को
सुनो
उन हवाओं को
जो सरसरा कर ठिठकती है
पत्थरों को तोड़कर सुनो उसकी आवाज
कितने ,
हौले से दरक रही है मिट्टी
चुग कर जाती चिड़िया
को देखो,
कैसे समेट ली है पंखो को
तितलियां कहा गई इन दिनों
आसमान भी पूछता है,
यह वह समय है
जब बात – बात पर
हिल उठते हैं वृक्ष
हां ये, गुमसुम समय की आवाज है।
02- दाना पानी..
हर शय में मात करने की बात करते हो
उजालों में भी अंधेरों की बात करते हो
जो गाते हो उल्लास का गीत
बायां मुंह उसी की बयानबाजी करते हो
ना उड़ सके तो,
चिड़ियों के पंखों को काटने की बात करते हो
पैदल चलने का साहस जुटाकर
पहाड़ों को काटने की बात करते हो
अजब तमाशबीन है जमाना साथियों,
दौड़ते हुए को गिराना , खुशी की बात में शामिल करते हो
सूरज की रोशनी को समेटने का दावा कर
पूरी दुनिया को ठिकाने लगाने की बात करते हो
संभल जाओ ,कि कहीं पैर की मिट्टी ना खिसक जाए! अदनी सी मिट्टी ,कहीं बड़ा कमाल ना दिखा जाए|
03- रक्त
चारों ओर पानी ही पानी है
रक्त का रंग फीका है
यहा आदमी अपने कटे हाथों को पानी से सींचता है
और कहता हैं नदियों को
जाओ , ले जाओ मेरा रक्त
फिर तुम्हें लौट के आना है,
मेरी निशानी के साथ।
यहा इसी जमीन पर
मेरे खेतों में,
मेरे घरों में,
मेरे संपूर्ण अस्तित्व में ।