विविध @ डॉ. सुधीर सक्सेना
प्रोफेसर सी. एन. वकील
सरोकारों से जुड़ा अर्थशास्त्री
डॉ. सुधीर सक्सेना
इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि बहुतेरी गुणी और विद्वान विभूतियों को उनकी परवर्ती पीढ़ियां नहीं जानतीं, जबकि उन्हें जानना चाहिये क्योंकि उन्हें जानना परंपरा या विरासत के साथ-साथ संकाय या संकायों को जानने के लिहाज से जरूरी है। ज्ञान-विज्ञान की परंपरा में कुछ भी औचक या यकबयक नहीं होता और यदि होता भी है तो उसके बीज परिस्थितियों में विद्यमान होते हैं और प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने आचार-विचार-याकि बहुधा अपने नवाचार से वक्त के तकाजे को पूरा करते हैं और नयी लीक गढ़ते हैं।
हमारी समवयस्क और युवा पीढ़ी के लिए सी.एन. वकील ऐसा ही एक नाम है। अल्पज्ञात और अचर्चित। एक अनसन्ग हीरो। कौन थे सी. एन. वकील? यह शख्स वह विद्वान था, जिसने ब्रिटिश काल में भारत वर्ष में आज से एक शताब्दी पहले बंबई विश्वविद्यालय में देश का पहला अर्थशास्त्र विभाग शुरू किया था। यह वह शिल्पी था, जिसने भारत की अर्थशास्त्रियों की दो पीढ़ियों को अपने हाथों ढाला। अपने लगभग साठ साल के सक्रिय कर्मशील जीवन में उसने संपूर्ण राष्ट्र के आर्थिक सोच को प्रभआवित किया। जिसकी छोटी किताबें बड़ी हलचल का सबब बनीं। जिसने भारत में स्नातकोत्तर, अध्यापन और शोध की आधारशिला रखी। जिन भारतीय अर्थशआस्त्रियों-डॉ. वीकेआरवी राव, प्रो. आरएल हजारी, प्रो. डीटी लकड़ावाला, प्रो. पीआर ब्रह्मानंद, प्रो. एमएल दांतवाला आदि को न तो विस्मृत किया जा सकता है और न ही उपेक्षित वे सब उन्हीं के शिष्य थे।
सीएन वकील। पूरा नाम चंदनलाल नगीनदास वकील। छात्रों के प्रिय प्रोफेसर। स्नेही अध्यापक। छात्रों के शिक्षक ही नहीं, हितैषी और परामर्शदाता भी। उनके सुख-दु:ख के साथी। फ्रेंड, फिलास्फर एण्ड गाइड। सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति। जन्म सन् 1896 में गुजरात में रान्देर में। पांच साल की उम्र में मुम्बई चले आये, जो गैस से रोशन था और जहां घोड़ेवाली ट्रामें चला करती थीं। ये ट्रामें धुआं नहीं छओड़ती थीं। अलबत्ता बसों की अपेक्षा वक्त अधिक लेती थीं। सैंडहर्स्ट ब्रिज पर घोड़ों की एक जोड़ी पहले से तैयार रहती थी, क्योंकि एक जोड़ी के लिए ट्राम खींचना कठिन और मशक्कतभरा था। चार घोड़ों की अश्वशक्ति से ट्राम खींचने का बालपने का यह अनुभव चंदनलाल यानी प्रो. वकील कभी नहीं भूले। बहरहाल, कुशाग्र बुद्धि चंदनलाल को बंबई में खुला माहौल मिला। पहले एलफिंस्टन कॉलेज और फिर विल्सन कॉलेज में भर्ती हुए। सन् 1916 में बीए में पहली श्रेणी में पहला स्थान। फिर एमए में अव्वल। तदंतर लंदन स्कूल आॅफ इकॉनामिक्स में एमएससी।
वह सन् 1921 में अगस्त मास का पहला दिन था, जब बंबई विश्वविद्यालय के कुल सचिव ने प्रो. सीएन वकील को रॉयल इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के एक कोने में एक कुर्सी-मेज देकर देश का पहला अर्थशास्त्र विभाग शुरू करने को कहा। प्रो. वकील ने इस अवसर को एख इम्तेहान और चुनौती के तौर पर लिया। उन्होंने सलीकेदार शुरूआत की। बरसों बाद उन्होंने संपादक-लेखक रूसी एम लाला से उन दिनों को याद करते हुए कहा-‘कोई नजीर तो नहीं थी। कोई यह बताने वाला नहीं कि मुझे क्या करना चाहिए। मुझे ही सोचना और काम का मंसूबा बनाना था। वहां जो ढांचा मैंने विकसित किया, उसे मेरे वरिष्ठ सहकर्मी प्रो. के. टी. शाह ने स्वीकार किया।’ गौरतलब है कि प्रो. शह एक तिमाही बाद वहां आये थे। बहरहाल, भारत में अर्थशास्त्र के स्नातकोत्तर अध्ययन अध्यापन और शोध की नींव पड़ी। विभाग आगे चलकर अर्थ शास्त्र का संस्थान बना। यह करीब तीन दशक बाद की बात है कि उनके शिष्य डॉ. वीकेआरवी राव ने सन् 1950 में दिल्ली में दिल्ली स्कूल आॅफ इकॉनॉमिक्स की नींव रखी।
प्रो. वकील जब अध्यापन में रत थे, दुश्वारियां कम न थीं। विद्यार्थी आजादी की लड़ाई में भाग लेने को तत्पर थे। महात्मा गांधी जैसा अनूठा और नवाचारी क्रांतिकारी नेतृत्व परिदृश्य में था। प्रो. वकील छात्रों को समझाते कि पहले पढ़ाई पूरी करें, फिर अन्य कर्तव्य। उनकी कोशिश रहती कि किसी का अध्ययन या शोध छूटे नहीं। तदर्थ कुछ प्रसंग वर्णित हैं। एमएल दांतवाला जेल में थे। उनका शोध:प्रबंध अधूरा था। प्रो. वकील ने सुनिश्चित किया कि जेल में उनके पास किताबें और हिदायतें पहुंचती रहे, ताकि शोध पूरा हो। प्रो. वकील के एक और शिष्य थे बीटी रणदिवे। कालांतर में भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के कर्णधार बनकर उभरे रणदिवे जब जेल गये तो प्रो. वकील ने उनसे जेल में भेंट की अनुमति ले ली। जेलर की मौजूदगी में चर्चा के उपरांत रणदिवे को शोध की सुविधाएं मिलीं। रणदिवे चैप्टर लिखते और जेलर की जांच के बाद वे प्रो. वकील तक पहुंचते। उन दिनों अनुसंधान अजूबा थे। प्रकाशकों के लिए अजगैब। उन्हें छापने से उनका वास्ता न था। ऐसे प्रकाशनों के लिए बाजार का अभाव था। ऐसे में प्रो. वकील की पहल पर कमीशन-आधार पर लांगमैंस-ग्रीन एण्ड कंपनी से करार हुआ और रास्ता खुला। अक्सर प्रो. वकील जमानतदार बनते। उन्हें जेब से रकम चुकानी पड़ती। मगर नया रास्ता खुला। शोध-प्रबंध छपे। शोधकर्ता को शोहरत मिली। तारीफ और अच्छी नौकरी मिली। अनेक ने कामयाबी की ऊंचाइयां छुईं। उन्हीं दिनों का एक और प्रसंग है : रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया अनुसंधान विभाग में शोध का प्रशिक्षण पाये अर्थशास्त्रियों को भर्ती करता था। वह आॅक्सफोर्ड और कैंब्रिज के स्नातकों को वरीयता देता था। एकदा उसने संस्थान के सुयोग्य पीएचडी अभ्यर्थी को नकार दिया तो क्षुब्ध प्रो. वकील रिजर्व बैंक के गवर्नर से मिले। मुलाकात से बात बन गयी और बैंक के द्वार संस्थान के शिक्षितों-प्रशिक्षितों के लिए खुल गये।
प्रो. वकील बंबई विश्वविद्यालय में 35 साल रहे। तदंतर वे यूनेस्को अनुसंधान केन्द्र के निदेशक बनकर कलकत्ता चले आये। तीन साल बाद वे बंबई लौटे और जोर-शोर से लेखन में लग गये। कलकत्ते में रहते हुए उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में औद्योगीकरण के सामाजार्थिक प्रभावों पर अनेक अध्ययन कराये। डॉ. एडवर्ड कैनन लंदन स्कूल आॅफ इकॉनॉमिक्स में उनके गाइड थे। मुद्रास्फीति के खिलाफ जेहाद की रौ में उन्होंने चांसलर आॅफ द एक्सचेकर के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें उनके पैसे के मूल्य से वंचित किया है। इस मुकदमे से खूब सनसनी फैली और बहस चली। प्रो. वकील अपनी सतर्कता से ब्रिटिश – कोप से बचते रहे, किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के दरम्यान उनकी किताब ‘द फालिंग रूपी’ ने हुकूमत के माथे पर बल डाल दिये। अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की टिप्पणी उनके खामियाजा भुगतने का बायस बनी। प्रो. वकील की खूबी थी कि वे अर्थशास्त्र को सामाजिक संदर्भों से जोड़ते थे। उनका कहना था कि अर्थशास्त्र ऐसा विषय है, जो हरेक के जीवन को छूता है। इस विषय के बुनियादी तत्वों की समझ अनिवार्य है। मुद्रास्फीति के विरुद्ध उनका जेहाद सन् 1974 में चरम पर पहुंचा। उन्होंने अपने सहयोगी प्रो. ब्रह्मानंद के साथ सौ से अधिक सभाओं को संबोधित किया। उनके नेतृत्व में 50 विश्वविद्यालयों के 140 अर्थशास्त्रियों ने मुद्रास्फीति पर अंकुश हेतु सरकार को ‘एक्शन प्लान’ सौंपा। सरकार ने इसे सराहा तो नहीं, लेकिन उसे मुद्रास्फीति विरोधी अध्यादेश जरूर लाना पड़ा। विभिन्न मंचों से वे अपने आर्थिक सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करते रहे। वे खरी-खरी कहते थे। वे निर्मम आलोचना करते थे और मुक्त-कंठ सराहना भी। डॉ. जेएन मुखर्जी की ‘फॉरवर्ड विद नेचर’ पर वे इतने मुग्ध थे कि उन्होंने उसकी तारीफ में नानी पालकीवाला को पत्र लिखा था। आरएम लाला के मुताबिक गर प्रो. वकील के बस में होता तो वे डॉ. मुखर्जी को नोबेल पुरस्कार दे देते। उनके शिष्यों को वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ, भारतीय रिजर्व बैंक समेत अग्रणी वित्तीय संस्थाओं में नौकरियां मिलीं। यह बात प्रो. वकील को पुलक से भर देती थी। वे कॉमर्स और हिम्मत जैसी पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे और उन्होंने 30 पुस्तक और पुस्तिकाएं लिखीं। शास्त्री पांडुरंग आठवले और रान्देर के ज्ञानयोगी चन्द्रशेखर भट्ट उनके प्रेरक व्यक्तित्व थे और भगवतगीता प्रेरक कृति। उनका दांपत्य जीवन अत्यंत सुखी था। वे मैरीन ड्राइव पर नियमित टहलने जाते थे।
प्रो. वकील को जीवन की सांध्य-वेला में, जब वे 70 वर्ष के थे, दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया। नवाचारी प्रो. वकील ने वहां ग्रामीण अध्ययन विभाग प्रारंभ किया। वे जीवन के आखिरी पल तक सक्रिय रहे। सन् 1979 में उन्होंने सदा के लिए आंखें मूंद लीं।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )
@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909