हर शनिवार

देश में निष्पक्ष पुलिस और न्याय व्यवस्था बनानी ज़रूरी

     -डॉ. दीपक पाचपोर

लगभग डेढ़ माह पहले एक ट्विट के जरिये पंजाब के मुख्यमंत्री भगवन्त सिंह मान के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने एवं धमकी देने के आरोप में दिल्ली के भारतीय जनता पार्टी के नेता तजिंदर पाल सिंह बग्गा को गिरफ्तार कर उस राज्य की पुलिस ले जाती है। उस पुलिस पार्टी को कुरुक्षेत्र में हरियाणा पुलिस रोक लेती है। तीनों राज्यों (दिल्ली, पंजाब व हरियाणा) के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नेतृत्व में बड़े पुलिस बल एक दूसरे के सामने इस तरह तन जाते हैं मानों वे किसी दुश्मन देश की सेना से लड़ने आये हों। तीनों ही राज्यों की सरकारों और भाजपा व आप पार्टी के लिये बग्गा की गिरफ्तारी या उसे गिरफ्तार होने से रोकना प्रतिष्ठा की बात बन जाती है। अपनी-अपनी सरकार के आदेश का पालन हर हाल में करना उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। हरियाणा में पंजाब पुलिस पर अपहरण का मामला दर्ज कर दिया जाता है और बग्गा देश की राजधानी के पुलिस संरक्षण में दिल्ली लौट जाता है।
इसे एक सामान्य घटना कहकर नज़रंदाज किया जा सकता है, पर यह इतना सरल है नहीं। यह केवल तीन राज्यों के बीच की पुलिस खींचतान का मामला न होकर इस बल के राजनैतिक दुरुपयोग का ताजा दृष्टांत है। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह संघीय ढांचे की भावना के खिलाफ है। दिल्ली व पंजाब में आम आदमी की सरकारें हैं लेकिन दिल्ली पुलिस सीधे केन्द्र सरकार के अधीन आती है क्योंकि वह केन्द्र शासित प्रदेश है। हरियाणा में भाजपा की सरकार है। यही समीकरण इस विवाद का कारण बन गया। तीन-तीन राज्यों की पुलिस को एक दूसरे के सामने जिस प्रकार से खड़ा कर दिया गया और इसे सुलझाने में केन्द्र ने न कोई दिलचस्पी दिखाई न ही कोई बयान तक जारी किया, उससे स्पष्ट होता है कि खुद केन्द्र सरकार इस घटनाक्रम से न सिर्फ खुश है वरन उसे हवा भी दे रही है। ऐसा मानने के कई कारण हैं। पहला तो यह कि इस कथित मोदी-युग ने भारत को अनेक तरह के नये विभाजन दिये हैं। एक ओर हिन्दू-मुसलिम का कार्ड जमकर खेला जाता है, तो दूसरी तरफ अगड़े व पिछड़े हिन्दुओं के बीच दीवारें खड़ी की जाती हैं। चुनावों के समय ये विभाजन रेखाएं और भी गहरी की जाती हैं। हाल ही के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में देखा गया कि उस राज्य का मुख्यमंत्री सीधे-सीधे ‘80 बनाम 20’ की बातें करते हैं। कोरोना काल में बड़े एवं औद्योगिक शहरों से पैदल अपने गांवों तथा कस्बों की ओर लौटने वाले लाखों श्रमिक अपने ही देश में बेगाने हो जाते हैं, मानों वे किसी दूसरे देश से आये शरणार्थी हों। उन्हें तथा तब्लीगे-जमात वालों को ‘बीमारी फैलाने वाले’ से लेकर न जाने क्या-क्या कहा गया। अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उन पर रासायनिक छिड़काव किया गया था। पिछले साल अगस्त में असम और मेघालय के पुलिस बलों के बीच भी मुठभेड़ देखी गयी थी, जबकि इन दोनों ही राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। सूरत में पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के लोगों को निकाला जा रहा था जो कि कच्चे हीरे पालिश करने के काम में लगे थे। कश्मीर एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ देश के अन्य भाग के लोगों का सुलूक क्या होता रहा है, यह भी सभी ने देखा है।
ऐसा नहीं कि भारतीय समाज हमेशा से गैर बराबरी एवं विभाजनों से मुक्त रहा हो लेकिन पिछले 8 वर्षों से, यानी जबसे केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई है और राज्यों में भी वह सफल व ताकतवर होती जा रही है, देश में असमानता और सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग सतत बढ़ रहा है। बढ़ती हुई आर्थिक गैर बराबरी तो सबसे सामने है ही जो अन्याय को बढ़ा रहा है। इस विभाजन को बढ़ाने में पुलिस, न्यायालय एवं मीडिया का हो रहा दुरुपयोग बेहद कष्टप्रद है। खुद से अलग तरह की राजनैतिक या सामाजिक विचारधारा रखने वालों के प्रति घृणा का बढ़ता माहौल समाज को लगातार तोड़ रहा है। यह वर्तमान के साथ भविष्य के लिये भी घातक है। न्याय के समक्ष समानता का सिद्धांत भी अब विसर्जित हो रहा है। जो सत्ता के करीब है या शक्तिशाली है, उसे न्याय मिलेगा। बग्गा का मामला तो इसका ताजा उदाहरण है ही, कुछ दिनों पहले दिल्ली दंगों के सिलसिले में एक कोर्ट ने केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर एवं दिल्ली से ही भाजपा के सांसद प्रवेश वर्मा के खिलाफ हेट स्पीच का मामला यह कहकर सुनवाई से इंकार कर दिया कि “उन्होंने भाषण मुस्कुराकर दिया था इसलिये अपराध नहीं बनता।” ऐसी न्यायपालिका से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। दूसरी तरफ न जाने कितने विपक्षी नेता, छात्र नेता, सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार आदि हैं जो पुलिस द्वारा इसलिये गलत ढंग से सलाखों के पीछे भेजे गये हैं क्योंकि वे भाजपा व सरकार के विरोधी हैं। यह ऐसा समय है जिसमें पुलिस समेत सभी तरह की जांच एजेंसियों का सर्वाधिक दुरुपयोग सरकार द्वारा हुआ है। वैचारिक एवं राजनैतिक प्रतिद्वद्वियों को गलत ढंग से फंसाने, डरा-धमका कर अपने दल में शामिल करने, निर्वाचित राज्य सरकारें पलटने या बनाने के लिये भाजपा खुलकर जांच एजेंसियों को काम पर लगाती है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। बेशक पहले भी होता रहा है लेकिन उसकी एक मर्यादा होती थी और लिहाज था। फिर, कोर्ट में मामला जाने के बाद न्यायाधीश दूध और पानी को अलग-अलग कर देते थे। अब तो न्यायालय भी पुलिस के कामों पर मुहर लगा देती हैं। न्याय पाना इतना कठिन बना दिया गया है कि अब प्रक्रिया ही सजा बन गयी है। प्रतिष्ठित पत्रकारों व लेखकों समेत कई लोग इसके शिकार हुए हैं।
अधिक दुखदायी है जनता द्वारा इस तरह की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों पर मौन धारण करना या उनमें दिलचस्पी न लेना। जनता यह न सोचे कि यह झगड़ा नेताओं व राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों तक ही सिमटा रहेगा। पुलिस एवं कोर्ट द्वारा किये गये अधिकारों के दुरुपयोग का शिकार अक्सर सामान्य नागरिकों को भी होना पड़ता है। एक-एक कर सबका नंबर आता है। पक्षपात रहित पुलिस व्यवस्था एवं निष्पक्ष न्याय पालिक लोकतंत्र की आवश्यक शर्त है। इसलिये जनता को चाहिये कि वह पुलिस-सुधार की मांग करने वालों का साथ दे तथा जो निर्दोष फंसाये जाते हैं उनका पक्ष लेकर मानवाधिकारों की रक्षा के लिये खड़ी रहे। हिटलर के उत्कर्ष काल में जर्मनी की पुलिस (गेस्टापो) द्वारा दी जाने वाली ‘मिड नाइट नॉंक’ (आधी रात की दस्तक) आज भी याद की जाती है जिसमें निर्दोष यहूदियों, वामपंथियों एवं सरकार विरोधियों को उठाकर ले जाया जाता था। कश्मीर व बस्तर में भी यह देखा गया है जहां अनेक लोगों को कभी न्याय नहीं मिल पाया क्योंकि पुलिस की कार्रवाई ही दोषपूर्ण थी।
अगर हमें एक ऐसा समाज बनाना है जिसमें सभी को समान न्याय मिले, बगैर पक्षपात के दोषियों को सजा हो एवं निर्दोष भयमुक्त रहें, तो पुलिस व न्यायपालिका में व्यापक सुधार करने होंगे जो सरकार के इशारों पर नहीं वरन कानून के तयशुदा प्रावधानों के अनुरूप फैसले करे। सरकार में बैठे लोगों व सत्ताधारी दलों को भी जानना होगा कि अगर यह परिपाटी बन गयी तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों उनके साथ भी वही व्यवहार हो सकता है क्योंकि सत्ता कभी किसी एक व्यक्ति या पार्टी की स्थायी नहीं होती। बदलाव होने पर यह प्रणाली उन्हें भी उतनी ही महंगी पड़ेगी।

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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