विविध @ डॉ. सुधीर सक्सेना
अद्वितीय मेरी क्यूरी
डॉ. सुधीर सक्सेना
विज्ञान की परंपरा में अद्वितीय है मेरी क्यूरी, सर्वथा अद्वितीय। जो उसने किया, वह इतिहास में उशके पूर्व संभव न हो सका था और न ही उसके उपरांत उसकी पुनरावृत्ति संभव हो सकी। वह विलक्षण वैज्ञानिक थी। विज्ञान ही उसकी चिंता थी। विज्ञान ही स्वप्न। विज्ञान ही प्रयोजन। और विज्ञान ही संतुष्टि। वह नोबेल पुरस्कार विजेता पहली महिला थी। वह ऐसी विरल शख्सियत हैं, जिसे दो बार नोबेल सम्मान मिला। वह ऐसी अद्भुत वैज्ञानिक हैं, जिसे विज्ञान के दोनों संकायों-भौतिकी और रसायन में नोबेल पुरस्कार मिला। उसके परिवार के पांच सदस्यों को नोबेल से सम्मानित किया गया। योरोप महाद्वीप में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाली वह पहली महिला थी। फ्रांस में सोर्बोन विश्वविद्यालय में प्रवक्ता और प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का गौरव अर्जित करने वाली वह पहली महिला थी। वह ऐसी नोबेल विजेता स्त्री हैं, जिसके पति और पुत्री को भी नोबेल पुरस्कार मिला। उसने रेडियम की खोज की और नाभिकीय भौतिकी और कैंसर उपचार का पथ प्रशस्त किया। विज्ञान और शब्दकोश को ‘रेडियोधर्मिता’ शब्द उसी की देन है। यही नहीं, शुद्ध रेडियम और रेडियम घटकों की खोज और उन्हें विलग करने की विधि भी उसी ने खोजी। उसने एक नया रेडियोधर्मी तत्व भी खोज निकाला और उसे अपने वतन पोलैंड के नाम पर नाम दिया पोलो-नियम।
7 नवंबर, सन् 1867 को पोलैंड की राजधानी वार्सोवा (वारसा) में जनमी इस विलक्षण महिला का नाम था मैरी सैलामिया स्क्लोदोव्स्का। मां ब्रोनिस्ला। और पिता व्लादिस्लाव स्क्लोदोव्स्की। पोलैंड तब स्वाधीन न था। वार्सोवा रूस के हिस्से में था और जारशाही से बुरी तरह त्रस्त था। मारिया का परिवार राष्ट्रवादी पोल-भावनाओं से ओतप्रोत था और उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। पिता को नौकरियां बदलनी पड़ी और गलत निवेश से जमा पूंजी गंवानी पड़ी। यही नहीं, मारिया जब दस साल की थी, उसकी ममतालु और सुशिक्षिता मां की तपेदिक से केवल 42 वर्ष की वय में मृत्यु हो गयी। इन विषम परिस्थितियों में भी पिता ने बच्चों को शिक्षा और संस्कार दिये। वे गणित और विज्ञान के शिक्षक थे। रूसियों ने प्रायोगिक कार्यों पर पाबंदी लगा दी तो वे उपकरणों को घर ले आये और उन्हीं के जरिये मारिया का विज्ञान से व्यावहारिक परिचय हुआ और अनुराग भी।
मारिया पढ़ाई में बहुत अच्छी थी। उन्हें हाईस्कूल में अव्वल आने पर स्वर्ण पदक मिला, लेकिन गुलामी के कारण आगे पढ़ने के अवसर धूमिल थे। पिता के परामर्श पर अवसादग्रस्त मारिया ने एक वर्ष सैर-सपाटे या सगे-संबंधियों के साथ बिताया। मारिया और बड़ी बहन ब्रोन्या में गजब की समझदारी और अपनापन था। दोनों बहनों ने ‘फ्लाइंग विश्वविद्यालय’ ज्वॉइन कर लिया, जो रात के अंधेरे में चोरी-छिपे चलते थे। इन संस्थानों का अंतिम उद्देश्य पोलैंड की मुक्ति था। छात्रगण परस्पर पढ़ते-पढ़ाते और आजादी के सपने देखते थे। इन संस्थानों ने स्क्लोदोव्स्क-बहनों को प्रगतिशील विचारों और विज्ञान-प्रगति में अद्यतन कर दिया। ब्रोन्या ने प्राइवेट ट्यूशन का रास्ता पकड़ा और मारिया घरेलू शिक्षिका बनी। खट्टे-मीठे अनुभवों और जेड-परिवार के बड़े लड़के से पहले और असफल प्यार ने मारिया को समझदार बना दिया। सन् 1889 में वह वार्सोवा लौट आई। वहां उसे एक अमीर घर में ढंग की नौकरी मिली और ‘द म्यूजियम आॅफ इंडस्ट्री एण्ड एग्रीकल्चर’ के छद्म नाम से संचालित विश्वविद्यालय में अध्ययन और प्रयोगों की कीमती सुविधा भी। अंतत: चाह से राह खुली। मारिया नवंबर, 1891 में 24 साल की उम्र में रेलगाड़ी में तीसरे दर्जे के सस्ते डिब्बे में सवार होकर अपने चहीते गंतव्य पेरिस के लिए रवाना हुई। कठिनाइयां कम न थीं। मुफलिसी थी, कॉलेज-शिक्षा से वे छह साल दूर रही थी और उसकी फ्रेंच अकादेमिक और चमकीली न थी। सोर्बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर वह वहां पहले आ चुकी ब्रोन्या के घर ठहरी, जिसने पोल-देशप्रेमी डॉक्टर कोसीमीर द्लुस्की से विवाह कर लिया था। जल्द ही वह 15-20 फ्रांक के किराये की एक दुछत्ती में चली गयी, जहां बाहरी प्रकाश एक छेद से आता था और वहीं से उसे बित्ता भर आसमान नजर आता था। वह पैदल आती-जाती थी। सर्दियों में कोयला कम-अज-कम खर्च करती थी और संत जेनेवीव लाइब्रेरी के गैस से गर्म कमरे में षटकोणीय मेज पर कोहनी पर सिर टिकाए रात दस बजे तक किताबों में मशगूल रहती थी। घर लौटकर वह तेल के लैंप की रोशनी में रात दो बजे तक आंखे लाल भुइयां होने तक पढ़ती। जीवन कठिन और एकरस था, लेकिन वह जड़ता महसूस न करती थी। उसने अपने भाई को लिखा : मुझे केवल यह अफसोस है कि दिन काफी छोटे हैं और वे बहुत जल्द बीत जाते हैं।
तो ऐसी थी मारिया, जिसे जल्द ही दुनिया ने मैरी क्यूरी या मादाम क्यूरी के नाम से जाना। जी-तोड़ मेहनत के बाद सन् 1893 में उसने भौतिकी में मास्टर्स डिग्री हासिल कर ली। वह वहां से लौटी तो उसे मेधावी पोल छात्रों के लिए नियत अलेक्सांद्रोविच वजीफा मिला। छह सौ रूबल हाथ में आते ही वह पेरिस लौट आई और अगले ही साल उसने गणित में मास्टर डिग्री प्राप्त की। फलत: उसे नौकरी मिली। नौकरी में पहला वेतन मिलते ही उसने छह सौ रूबल फाउंडेशन को लौटा दिये, ताकि वे किसी अन्य जरूरतमंद युवा प्रतिभा के काम आ सकें। इस बीच उसे विविध इस्पातों की रासायनिक संरचना और उनके चुंबकीय गुणों के मध्य संबंधों के अध्ययन का काम मिला। बिना प्रयोगशाला के काम कैसे हो? फ्रिबोग विश्वविद्यालय में कार्यरत पोल-भौतिकी शास्त्री प्रो. एम. कोवस्की, जो उससे परिचित थे और संयोग से पेरिस आये हुए थे, ने सलाह दी कि वह चुंबकत्व पर अग्रणी शोधकर्ता और पेरिस में औद्योगिक भौतिकी और रसायन म्यूनिस्पल लैब में कार्यरत पियरे क्यूरी से मिलें। यूं मारिया और पियरे की मुलाकात हुई, ऐसी मुलाकात, जिसने दो व्यक्तियों के जीवन और विज्ञान में आमूलचूल परिवर्तन कर डाला। तब तक पियरे भाई के साथ पिएजो-विद्युत की खोज कर चुके थे। उन्हें नाम की नहीं, काम की धुन थी। मारिया गणित की डिग्री हासिल करने के बाद वार्सोवा लौट गयी, मगर पियरे ने उसे पत्र लिखना जारी रखा। पियरे उसकी देशभक्ति और प्रतिभा की कद्र करते थे और उसमें निहित संभावनाओं को चीन्ह रहे थे। कोशिशें रंग लाईं और वह वापस लौटीं। जुलाई, 1895 में दोनों ने विवाह कर लिया। उन्होंने पेरिस में मेरिट से शिक्षण डिप्लोमा हासिल किया। सितंबर, 1897 में वह मां बनीं। उनकी बेटी इरीन ने बरसों बाद मां-पिता के नक्शे-पा चलकर नोबेल प्राप्त किया।
घटनाएं विधान रच रही थीं। सन् 1897 में मेरी पियरे ने भौतिकी में डॉक्टरेट का निश्चय किया। दो साल पहले ही विल्हेम कॉनरेड रोंटजेन (1845-1923) ने एक्स किरण की खोज की थी। सन् 1896 में एंटोनी हेनरी बेकरेल ने फोटो-प्लेटों पर यूरेनियम यौगिक के प्रभाव को दर्शाया। मेरी ने भेदभरी यूरेनियम किरणों के योजनाबद्ध अध्ययन का फैसला किया। विषय नया था, लिहाजा संदर्भहीन। मेरी को शून्य से शुरू करना था। प्रयोगशाला की सुविधा थी और उनके पास था क्यूरी-ब्रदर्स का ईजाद किया अत्यंत कारगर विद्युतमापी।
मेरी क्यूरो को सिद्ध करते देर नहीं लगी कि यूरेनियम अकेला रेडियोधर्मी नहीं है। थोरियम भी वैसा ही है। उन्होंने पाया कि विकिरण क्षमता यूरेनियम की आंतरिक संरचना में निहित है। उसने शोध से पाया कि पिच ब्लैंड और चाल्को साइट में अधिक सक्रिय कोई तत्व मौजूद है। इन संभावनाओं ने पियरे को इतना आकर्षित किया कि वे मणियों पर अपने शोध कार्य को छोड़ मेरी के शोध में सोत्साह हाथ बंटाने लगे। क्यूरी-युगल ने बेरियम और बिस्मथ को सर्वाधिक रेडियो सक्रिय पाया। 26 दिसंबर, सन् 1898 में पढ़े परचे में सर्वप्रथम रेडियोधर्मिता ‘शब्द’ का उल्लेख हुआ और पिच ब्लेंड से प्राप्त पदार्थों में बिस्मथ जैसे गुणधर्म के अज्ञात तत्व की उपस्थिति का भी। उन्होंने पोल-प्रेम के चलते उसे पोलोनियम नाम दिया। इसी लेख में उन्होंने रेडियम का भी उल्लेख किया। साधन सीमित थे, मगर लगन असीम। आस्ट्रिया सरकार से क्यूरी दंपत्ति को एक टन पिच ब्लैंड उपहार में मिल गया। क्यूरी-दंपत्ति ने औषधि-संस्थान की जीर्णशीर्ण परित्यक्त छत के नीचे अपशिष्ट पदार्थ के अवशोधन का काम शुरू किया। वह जगह आलू के गोदाम और तबेले का मिला-जुला रूप थी। बहरहाल, उन्होंने ग्राम का दशमांश शुद्ध रेडियम क्लोराइड प्राप्त कर लिया और उसे वर्णक्रममापी के जरिये तत्वों की पहचान के प्रणेता-वैज्ञानिक यूजीन डेमार्के (1852-1904) के पास ले गये। मेरी ने अपना शोध प्रबंध 15 जून, 1903 को जिस तीन सदस्यीय समिति को प्रस्तुत किया, उसके दो सदस्य-गैब्रिएल लिपमैन (1845-1921) और फर्डिनंड मोइसन (1852-1907) भावी नोबेल विजेता थे। वे चकित रह गये। बैकरेल और क्यूरी दंपत्ति को संयुक्त रूप से नोबेल मिला। करीब 70 हजार फ्रैंक मिलने की खबर से मेरी रोमांचित थी, मगर स्वास्थ्य और आंधी-पानी में 48 घंटे की लंबी यात्रा में अनिष्ट की आशंका से वह स्टाकहोम नहीं जा सकी। फितरत देखिये कि उन्होंने अमेरिका में व्याख्यान श्रृंखला का न्यौता यह कहकर ठुकरा दिया कि ‘अमेरिका हमें कितनी भी रकम क्यों न दे, हम उसे अस्वीकार करते हैं।’
सन् 1914 में मेरी ने रेडियम संस्थान की स्थापना में सहायता की, जिसे अब क्यूरी इंस्टीट्यूट कहा जाता है, मानवता को समर्पित इस शख्सियत ने प्रथम विश्वयुद्ध में नर्सों को विकिरण चिकित्सा में प्रशिक्षित किया। उन्होंने धनी महिलाओं से कारें दान करने की अपील की और बीसेक मोटरों और स्थिर ठिकानों को एक्स-किरण उपकरणों से लैस किया। वे बेटी आइरीन के साथ फील्ड अस्पतालों में भी गयीं। उनके प्रयासों से 10 लाख से अधिक का परीक्षण संभव हो सका। सन् 1921 में अमेरिकी पत्रकार मैरी मैलोनी ने रेडियम प्रतिष्ठान के लिए कोष हेतु उन्हें अमेरिका जाने को प्रेरित किया। अंतत: अमेरिकी राष्ट्रपति वारेन हार्डिंग ने इस चंदे से खरीदा गया रेडियम मेरी को भेंट किया।
सन् 1906 में एक सड़क दुर्घटना में पियरे की दर्दनाक मृत्यु हो गयी। मगर अकथ संताप सीने में दबाये मेरी मिशन में लगी रहीं। एंड्रे ड्रेविअर्न की मदद से उन्होंने अंतत: शुद्ध रेडियम हासिल किया। रेडियम व पोलोनियम की खोज और इन विलक्षण तत्वों के अध्ययन से रसायन विज्ञान में योगदान के लिए उन्हें 1911 में पुन: नोबेल मिला।
4 जनवरी, 1934 को उनकी ल्यूकेमिया से मृत्यु हो गयी। यह विकिरण का फेफड़ों पर असर का नतीजा था। पियरे दंपत्ति की अस्थियां सन् 1995 में पेरिस के प्रसिद्ध ‘पैनफिआॅन’ में विक्टर ह्यूगो, ज्यां सोरेस, ज्यां माइलीन जैसी विभूतियों की समाधि के पास स्थापित की गयी। उनके लिए आदर्श सर्वोपरि थे, लिहाजा उन्होंने अपनी खोज पर कोई पेटेंट नहीं लिया। उनकी बेटी ईव ने उनकी बायोग्राफी में लिखा-‘‘वह स्वस्थ, ईमानदार, संवेदनशील और हंसमुख थीं। उनका हृदय प्रेमभरा था…।’’
यकीनन मादाम क्यूरी का हृदय विश्व मानवता के प्रति प्रेम से आप्लावित था।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )
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