विश्व विमर्श @ डॉ. सुधीर सक्सेना
उक्राइना के बहाने ताइवान का ‘खटका’
डॉ. सुधीर सक्सेना
उक्राइना की जंग जारी है और इसने ऐसी जंग की शक्ल अख्तियार की है, जो एकबारगी थमने के बाद भी अलग-अलग रूपों में जारी रहेगी। वजह यह कि उक्राइना अब महज एक मुल्क नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय राजनय की बिसात पर एक मोहरा है। अर्से बाद रूस के खिलाफ एक ताकतवर मोहरा अमेरिका के हाथ लगा है। रूस इस मोहरे की ताकत बखूबी जानता है। यही वजह है कि शह और मात के इस रोमांचक खेल में ग्रैण्ड मास्टर व्लादिमीर पूतिन ने जो मारे, सो मीर की आक्रामक शैली अख्तियार की है। आज उक्राइना में रूस और अमेरिका ही नहीं, अलग-अलग कारणों से नाटो समेत योरोपीय राष्ट्रों की भी रूचि है। इस पेचीदा संकट से इन राष्ट्रों की अतीत की स्मृतियां और भविष्य के स्वप्न जुड़े हुए हैं। मगर दिलचस्प बात है कि उक्राइना के बहाने यकबयक ताईवान का खटका उभर आया है।
उक्राइना के बहाने ताईवान के खटके के उभरने के पीछे पर्याप्त और ठोस कारण हैं। ताईवान पश्चिमोत्तर प्रशांत महासागर में स्थित अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके उत्तर-पश्चिम में चीन, उत्तर-पूर्व में जापान और दक्षिण में फिलिप्पींस हैं। आबादी लगभग दो करोड़ 40 लाख है। प्रतिशत के मान से ईसाई और मुस्लिम आबादी का योग यहां 10 फीसदी भी नहीं है। लगभग 44 प्रतिशत लोग स्थानीय धर्म को मानते हैं और करीब 21 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म की अनुयायी है।
इस सुन्दर- सुरम्य द्वीप पर योरोप के उपनिवेशवादियों की निगाह पहलेपहल तब पड़ी थी, जब पुर्तगाल के बेड़े ने सन् 1542 में यहां लंगर डाला था। कागजात में इसे ‘इल्हा फार्मोसा’ (सुंदर टापू) दर्ज करने के कारण इसके लिए लंबी अवधि तक फार्मोसा शब्द रूढ़ रहा। 17वीं सदी में यहां डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापारिक कोठी खोली। 17वीं सदी में यहां बड़ी संख्या में हान-चीनियों का आव्रजन हुआ और चीन के क्विंग राजवंश ने इसे जीता भी। सन् 1895 में यहां जापान का कब्जा हुआ, किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध में आत्मसमर्पण के बाद उनका शासन जाता रहा। सन् 1960 के दशक में ताईवान ने तीव्र निर्यातोन्मुख औद्योगिक प्रगति से आर्थिक मोर्चे पर चमत्कारिक छलांग लगाई और विकसित राष्ट्रों की पांत में जा खड़ा हुआ। आर्थिक मोर्चे पर कमाल के बावजूद ताईवान राजनय में फिसड्डी साबित हुआ और पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चाइना ने उसके सारे रास्ते छेंक लिए। उसे सबसे बड़ा आघात तब लगा, जब 25 अक्टूबर, सन् 1971 को उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा।
उक्राइना संकट ने चीन को आपदा में अवसर प्रदान कर दिया है। उसने रूस के आक्रामक तेवर देखे हैं और अमेरिका का असमंजस भी। चीन ही नहीं, नाटो और योरोपीय राष्ट्रों की दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे हटने की रणनीति सारी दुनिया ने देख ली है। वियेतनाम, इराक और अफगानिस्तान से सबक लेकर अमेरिका जहां युद्ध की अग्नि में अपने सैनिकों को झोंकना नहीं चाहता, वहीं दो विश्वयुद्धों से सबक लेकर योरोप अपनी भूमि पर तीसरे विश्वयुद्ध से बचना चाहता है। उक्राइना संकट की विषम वेला में मस्क्वा के साथ खड़े होकर बीजिंग ने ताईवान पर उसके समर्थन की गारंटी हासिल कर ली है। उक्राइना में फौजी कार्रवाई से पेश्तर फरवरी में ही व्लादिमीर पूतिन के शी जिंन पिंग के नाम पत्र से ताईवान को चीन का हिस्सा मानने की धारणा पर क्रेमलिन की मोहर लग गई है। अब यदि चीन ताईवान पर अधिपत्य के लिए सैन्य कार्रवाई करता है, तो रूस उसका बगलगीर रहेगा और मस्क्वा – बीजिंग धुरी से पंगा लेने के पहले व्हाइट हाउस को अनेकश: सोचना होगा। जबकि यह ध्रुव सत्य है कि सन्निहित खतरों के बावजूद तब ताईपेई को आश्वासन या नैतिक बल की नहीं, वरन सचल फौजी बूटों और हथियारों की जरूरत होगी।
सन् 1925 में सन यात सेन और राष्ट्रीय क्रांतिकारी सेना तथा कुओमितांग के तहत एकीकरण अब इतिहास की बातें हैं। सचाई यह है कि लगभग 3.4 करोड़ की आबादी के ताईवान के हाथों से समृद्धि के बावजूद चीजें लगातार फिसलती गईं। सन् 70 के आते-आते समीकरणों में बहुत बदलाव आ गया। चीन के आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के तौर पर उभरने और परमाणु क्षमता हासिल करने के पश्चात उसके प्रति उन्नत और शक्तिशाली राष्ट्रों के रवैये में फर्क आया। सन् 1979 में साम्यवादी चीन को अमेरिका की मान्यता के बाद राष्ट्रवादी चीन हाशिये में सरकता गया। आज जहां साम्यवादी चीन संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद का सम्मानित सदस्य है, वहीं राष्ट्रवादी चीन यानी चीनी ताईवान को यूएनओ के 193 में से सिर्फ 13 देशों की मान्यता प्राप्त है। पिछले बरसों में ताईवान की वरीयता और दृष्टिकोण में भी फर्क आया है। उसने अपने सैन्य बल और खर्चे में कटौती की है। सन् 1997 में उसका सैन्यबल साढ़े चार लाख सैनिक था, जो सन् 2001 में घटकर तीन लाख अस्सी हजार और सन् 2009 में और घटकर तीन लाख रह गया। इसके पूर्व 3 अक्टूबर, सन् 2008 को ताईवान ने अमेरिका से 6.5 बिलियन डॉलर का अत्याधुनिक सामरिक उपकरणों का भारी-भरकम सौदा किया और वह मिसाइलें और डीजल चालित पनडुब्बियां भी खरीदने की फिराक में है। अमेरिका से 4 विध्वंसक वह खरीद चुका है, लेकिन वह जानता है कि इतने हथियारों और सैनिकों के बूते चीन के खुल्लम खुल्ला आक्रमण की स्थिति में वह अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा नहीं कर सकेगा।
संयुक्त राज्य अमेरिका और रिपब्लिक आॅफ चाइना के मध्य सन् 1954 की सुरक्षा संधि ही ऐसी ‘ढाल’ है, जो चीन के खिलाफ ताईवान को बचाव की उम्मीद बंधाती है, लेकिन ताईवान रिलेशंस एक्ट या कोई भी दस्तावेज इस बात की गारंटी नहीं देता कि बाहरी आक्रमण की हालत में अमेरिका ताईवान को बचाने का ठोस फौजी उपक्रम करेगा। ताईवान पर कुछ और भी खतरे मंडरा रहे हैं। पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चाइना अब विश्वशक्ति है और उसकी नाराजगी मोल लेने की ताब दुनिया में नहीं है। कभी फ्रांस और नीदरलैंड भी ताईवान को हथियार दिया करते थे, लेकिन चीन की भृकुटि में बल पड़ते देख उन्होंने ताईवान को शस्त्र-आपूर्ति से तौबा कर ली। 22 अक्टूबर, 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडन ने यह तो कहा कि चीन के हमले की स्थिति में अमेरिका ताईवान की हिफाजत करेगा। किन्तु उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि इस कूटनीतिक शब्द से उनका क्या अभिप्राय है? चीन के शी जिंग पिंग और रूस के व्लादिमीर पूतिन के स्वभाव में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों ही अपने-अपने देशों के सामरिक हितों को लेकर अत्यंत सचेत हैं, बल्कि दोनों ही स्वेच्छाचारी और विस्तारवादी हैं। दोनों को ही अपने-अपने देश की जनता को कोई कैफियत नहीं देनी है।
ताईवान में सत्ता त्साई ईंग वेन के हाथों में है। वहां अर्ध्दराष्ट्रपति प्रणाली है। हालांकि, राष्ट्रपति अथवा किसी ताईवानी नेता ने खुलकर अपनी चिंता या डर का इजहार नहीं किया है, किन्तु पड़ोसी राष्ट्र जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एबे ने एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहा है कि अमेरिका को असमंजस से उबरकर यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह ताईवान पर चीन के आक्रमण की स्थिति में उसके बचाव के लिए सीधी कार्रवाई करेगा या नहीं? एबे मानते हैं कि यदि चीन वायुश्रेष्ठता के बल पर नभ-वर्चस्व की चेष्टा करता है तो उसका असर जापान के आकाश पर भी पड़ेगा। विशेषज्ञों का यह भी अनुमान है कि ताईवान और चीन के मध्य संघर्ष की स्थिति में चीन जापान, न्यूजीलैंड और आस्टेलिया की आर्थिक नाकाबंदी भी कर सकता है। कल कुछ भी हो किन्तु अफगानिस्तान से सैनिकों की औचक वापसी और उक्राइना की मदद के लिए फौजी टुकड़ियां नहीं भेजने के व्हाइट हाउस के अप्रत्याशित फैसले ने पहले से अलग-थलग पड़े ताईवान के माथे पर सलवटें डाल दी हैं।
( इस आलेख के लेखक डॉ. सुधीर सक्सेना देश की लोकप्रिय मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के जानेमाने कवि- साहित्यकार हैं। )
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