गणेश उत्सव के लिए गाइड लाइन नहीं, व्यवसाय को लेकर मूर्तिकारों में निराशा
कोरबा 24 अगस्त। गणेश चतुर्थी को पखवाड़े भर का समय शेष है। कोरोनाकाल को देखते हुए अभी तक उत्सव आयोजन के लिए प्रशासन ने गाइड लाइन जारी नहीं किया है। मूर्तिकारों ने इस बार बड़ी प्रतिमा तैयार नहीं की है। ऐसे में छोटे आकार के ही गणपति बप्पा की घरों में पूजा होगी। मूर्तियों की रंगाई का काम शुरू हो चुका है। व्यवसाय में मंदी को लेकर मूर्तिकारों में निराशा देखी जा रही है।
गणेश उत्सव के लिए मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकारों पर इस वर्ष भी कोरोना की मार देखी जा रही। गणेश चतुर्थी से लेकर दुर्गा पूजा तक प्रतिमा निर्माण को लेकर जिले में प्रति वर्ष 2.50 करोड़ से भी अधिक का कारोबार होता था। इस बार भी उत्सव आयोजन करने समितियों की भी रूचि नहीं देखी जा रही। कारोबार में आई गिरावट के चलते मूर्तिकारों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है। मूर्तिकारों के लिए यह वह समय होता था जब वे साल भर के लिए अपनी कमाई कमाई तीन से चार माह के भीतर कर लेते हैं। सीतामढ़ी निवासी मूर्तिकार का कहना है कि गणेश, विश्वकर्मा, दुर्गा से लेकर काली पूजा के लिए भी बड़ी प्रतिमा बनाना घाटे का सौदा साबित हो सकता है। कोरोना संक्रमण ने कभी व्यस्त रहने वाले कारीगरों के लिए समस्या खड़ी कर दी है। प्रदीप का यह भी कहना है कि शहर में कई लोग पक्की और प्लास्टर आफ पेरिस जैसे अघुलन शील प्रतिमा बाहर से लाकर बिक्री करते हैं। यह कुम्हारों के व्यवसाय में बाधक है, साथ ही पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से सही नहीं है। इस पर रोक लगना चाहिए। मूर्तिकार शंकर का कहना है कि समिति के लोग पहले मूर्ति तैयार करने के लिए एडवांस बुकिंग कराते थे। जिससे सजावट सामानों की भी मांग होती थी। छोटे आकार की प्रतिमा बनने से रंग, मुकुट, वस्त्र, अस्त्र के अलावा श्रृंगार सामग्री तैयार करने वालों के व्यवसाय पर भी असर पड़ा है। मूर्तिकार का यह भी कहना है कि उत्सव लिए पहले दो चार अधिक मूर्तियां बन जाने पर भी घाटे की आशंका नहीं होती थी। मूर्तिकारों को छोटी प्रतिमा व्यवसाय से ही संतुष्ट होना रहा है।
कोरोनाकाल को देखते हुए इस बार कोलकाता के मूर्तिकार नहीं आए हैं। इससे स्थानीय मूर्तिकारों को प्रतिस्पर्धा से राहत है। कोलकाता के कारीगर केवल कोरबा शहर ही नहीं बल्कि कटघोरा, दीपका, बांकीमोगरा सहित जिले के अलग-अलग जगहों में छावनी बना कर पूर्ति बनाने का काम करते थे। उनका सहयोगी बनकर काम करने वाले अब स्वयं मूर्ति बना रहे हैं। ऐसे में जो लोग शहर में आकर मूर्ति खरीदते थे, वे अब गांव में ही खरीदारी करेंगे।