प्रस्तुति- सतीश कुमार सिंह

गज़ल

दीमकों के नाम हैं वंसीवटों की डालियाँ,
नागफनियों की क़नीजें हैं यहाँ शेफालियाँ।

छोड़कर सर के दुपट्टे को किसी दरगाह में,
आ गई हैं बदचलन बाज़ार में कव्वालियाँ।

गाँठ की पूँजी निछावर विश्व पे कर गीत ने,
भाल अपने हाथ से अपनी लिखीं कंगालियाँ।

पूज्य हैं पठनीय हैं पर आज प्रासंगिक नहीं,
सोरठे सिद्धान्त के आदर्श की अर्धालियाँ।

इस मोहल्ले में महीनों से रही फ़ाक़ाक़शी, इस मोहल्ले को मल्हारें लग रही हैं गालियाँ। ———————————–

सुविधा से परिणय मत करना,
अपना क्रय विक्रय मत करना।

भटकायेंगी मृगतृष्णाएँ,
स्वप्नों का संचय मत करना।

कवि की कुल पूँजी हैं ये ही
शब्दों का अपव्यय मत करना।

हँसकर सहना आघातों को,
झुकना मत, अनुनय मत करना।

सुकरातों का भाग्य यही है,
विष पीना विस्मय मत करना।
————————————- वेदना की वर्तिका बनकर जली है,
ज़िन्दगी यूँ चन्द ग़ज़लों में ढली है।

देह में उसकी अजन्ता की कला तो,
दृष्टि में उसकी बसी कवितावली है।

बढ़ गई है धड़कनें दिल की अचानक,
ये गली ही, हो न हो उसकी गली है।

हाथ पे मेरे हथेली है किसी की, हाथ पे मेरे रखी गंगाजली है। ———————————-

जो किसी का बुरा नहीं होता,
शख़्स ऐसा भला नहीं होता।

दोस्त से ही शिकायतें होंगी,
दुश्मनों से गिला नहीं होता।

हर परिन्दा स्वयं बनाता है,
अर्श पे रास्ता नहीं होता।

इश्क के क़ायदे नहीं होते,
दर्द का फलसफा नहीं होता।

ख़त लिखोगे हमें कहाँ आखि़र, जोगियों का पता नहीं होता। ——————————-

स्नेह की संहिता रही है माँ,
भागवत की कथा रही है माँ।

इक मुझे चैन से सुलाने को,
मुद्दतों रतजगा रही है माँ।

दाह खुद को प्रकाश जगती को,
वर्तिका की शिखा रही है माँ।

मंजु मुस्कान की लिखावट में,
अश्रुओं का पता रही है माँ।

दृष्टि में ले अनन्त आर्द्राऐं, उम्र भर मृगशिरा रही है माँ। ————————————–

स्वप्निल शत प्रतिशत होते हैं,
कवि खुशबू के ख़त होते हैं।

उनसे भी होती है अर्चा,
अक्षर भी अक्षत होते हैं।

सुख के सौ-सौ युग क्षणभंगुर,
दुख के पल शाश्वत होते हैं।

विद्वज्जन उद्धत होते हों,
विद्यावन्त विनत होते हैं।

बनते उत्स महाकाव्यों के,
आँसू सारस्वत होते हैं। —————————————

Spread the word