विनोबा भावे : बापू के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी
विनोबा भावे : बापू के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी
डॉ. सुधीर सक्सेना
वे समर्पण की नजीर थे। पूर्णत: एकनिष्ठ। किसी भी तरह के संशय से परे। अविचल और अड़िग। चरैवेति के मंत्र को उन्होंने जीवन में उतार लिया था। उन्होंने अपने पांवों से इस महादेश को ओरछोर नापा। भाषाएं उनके चेरी थीं। कंठ में सरस्वती। प्रसिद्धि की चाह नहीं। आवश्यकताएं कम से कमतर। गीता पर अपूर्व और अनूठा अधिकार। अनुवाद में अद्भुत गति। संगीत से अनुराग। अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए दान की याचना। अहिंसाव्रती और ‘जयाजगत’ के मंत्र-दाता…यह थे विनोबा। संत विनोबा भावे। जन्मना विनायक नरहरि। आत्मा से सर्वोदयी। भूदान-यज्ञ के प्रणेता। राष्ट्र के शिक्षक। महात्मा गांधी के आध्यात्मिक या उत्तराधिकारी पुत्र। भारत छोड़ो आंदोलन के पहले सिपाही। श्रीमद्भगवतगीता के मर्मज्ञ और प्रवचनकार। साबरमती के संत के अनन्य अनुयायी। वह समस्त भारतीय भाषाओं के लिए उसी तरह एख लिपि के अनुयायी थे, जैसे तमाम योरोपीय भाषाओं के लिए एक रोमन लिपि। देवनागरी को वह समस्त भारतीय भाषाओं के लिए उपयुक्त मानते थे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। प्रेम की अमोघ शक्ति और सत्ता में उनकी गहरी आस्था थी। वह कहा करते थे-‘‘मुझे प्रेम छोड़ कोई तकनीक नहीं पता, क्योंकि शक्ति में मेरा कोई विश्वास नहीं।22 लोक ने उन्हें ससम्मान ‘आचार्य’ कहकर पुकारा। कृतज्ञ राष्ट्र ने सन् 1983 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया। इससे पच्चीस साल पहली ही उन्हें प्रतिष्ठित रमन मैग्सेसे अवार्ड से विभूषित किया जा चुका था।
महाराष्ट्र के कोंकण अंचल में 11 सितंबर, सन् 1895 को एक छोटे-से गांव गागोजी में उनका जन्म हुआ। नरहरि शंभुराव और रुक्मणिदेवी की पांच संताने थीं। चार बेटे विनायक, बालकृष्ण, शिवाजी एवं दत्तात्रेय तथा एक पुत्री। आधुनिक विचारों के पिता प्रशिक्षित बुनकर थे और बड़ौदा में रहते थे। विनायक का पालन-पोषण दादा शंभुराव भावे ने किया। वह महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा में पढ़े। वह अफनी मां रुक्मणी देवी से अत्यंत प्रभावित थे। कम उम्र में ही उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ी तो उसका उन पर अनन्य और अमिट प्रभाव पड़ा। वह आजीवन इस अमृतग्रंथ के पठन-पाठन, उस पर प्रवचन, टीका और अनुवाद से जुड़े रहे। उनके बारे में उनके घनिष्ठ सहयोगी मन्नारायण ने कहा-‘‘मुझे इस बात में रत्तीभर शक नहीं कि जब उनके भूदान-यज्ञ के अशेष तलाश कर सकना भी शोधकर्ताओं के लिए मुश्किल होगा। तब भी गीता पर उनकी विवेचना सदियों तक दमकती रहेगी। एक ऐसे महाऋषि के दमकते आभूषण के रूप में जो हाड़मांस में भारत भूमि पर रहता था।’’ कौन यकीन करेगा कि गीता पर उनकी टीका की भारतीय और योरोपीय भाषाओं में बीती सदी के अंत तक लगभग 25 लाख प्रतियां बिक चुकी थीं और नयी सदी में भी उसका बिकना जारी है। यह टीका कैदियों को तब दिये गये व्याख्यानों का परिणाम थी, जब वह सन् 1932 में फरवरी से जून के मध्य कारागार में थे। बंदियों में आस्था और ज्ञान के संचार के लिए उन्होंने लगातार 18 रविवार ये प्रवचन दिये थे। उन्होंने गीता को ‘गीताई’ शीर्षक से मराठी में अनुवाद किया। आरएम लाला लिखते हैं- ‘‘आश्रम में विनोबा से मिलना एक विनम्र अनुभव था। उस व्यक्ति का जो विशिष्ट व्यक्तित्व और जो मानववाद उभरकर सामने आता था। उसके अलावा उनके भाषणों, व्याख्यानों और अध्ययन के फलस्वरूप जन्म लेने वाली पुस्तकों को पढ़कर एख अद्भुत अनुभव होता था। उनके ज्ञान का विस्तार आश्चर्यजनक था, क्योंकि उन्होंने तमाम विश्व धर्मों के सार तत्व का अध्ययन किया था और उस पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित कराई थीं। कुरआन पढ़ने के लिए उन्होंने अरबी सीखी। ‘टॉक्स आॅन द गीता’ संभवत: उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना थी।
विनोबा भारतीय भाषाओं के लिए साझा लिपि के प्रबल पक्षधर थे। उनकी मान्यता थी कि साझा लिपि भारत के ऐक्य में सहायक होगी। उन्होंने एकबारगी कहा था-‘‘मैं एक सनकी हूं और मैंने एक नयी सनक अपना ली है।’’ वह खुद को ‘बाबा’ कहते थे। दिलचस्प तौर पर बाबा ने स्कूल में अंग्रेजी और फअरेंच सीखी थी, पर शीघ्र ही जर्मन, लैटिन और एस्पेरांतो भी सीख ली, क्योंकि उनकी लिपि एकसां थीं।
बापू से विनोबा के रिश्तों को जाने बगैर विनोबा को नहीं जान सकते। उन्हें बापू के विचारों और पाठों ने रचा था। बापू से उनका नाता एकबारगी जुड़ा तो फिर टूटा नहीं।
इस रिश्ते की कहानी दिलचस्प है। महामना मदनमोहन मालवीय के नवस्थापित वाराणसी हिन्दु विश्वविद्यालय में महात्मा गांधी के भाषण ने उन्हें पहलेपहल गांधी की ओर आकृष्ट किया। सन् 1916 का वाकया है। विनोबा इंटर परीक्षा के वास्ते बंबई जा रहे थे। रेलयात्रा में ही उन्होंने अखबार में छपा बापू का आलेख पढ़ा। लेख ने उनके भीतर ऐसी अलख जगायी कि उन्होंने स्कूल-कॉलेज के अफने सर्टिफिकेट आग में झोंक दिये। उन्होंने तत्काल बापू को एक खत लिखा। इस खत से दोनों के दरम्यां पत्राचार का सिलसिला चल निकला। बापू ने अपने से छब्बीस वर्ष छोटे विनोबा के मन की थाह पाई तो उन्हें पत्र लिखकर मुलाकात के लिए अहमदाबाद स्थित कोचरब आश्रम में आमंत्रित किया। 7 जून, 1916 को दोनों की भेंट हुई। नतीजतन विनोबा ने आगे पढ़ने का इरादा त्याग दिया और आश्रम की गतिविधियों से मन, वचन और कर्म से जुड़ गये। अध्ययन, अध्यापन, साफ-सफाई, कताई, खादी का प्रचार-प्रसार, ग्रामोद्योग, नयी तालीम ही अब उनका ध्येय था। 8 अप्रैल सन् 1921 को वह बापू की इच्छा के अनुरूप आश्रम की स्थापना के लिए वर्धा गये। सन् 1923 में उन्होंने मराठी मासिक ‘महाराष्ट्र धर्म’ निकाला। बाद में यह पत्र साप्ताहिक हुआ और तीन साल चला। सन् 1925 में बापू ने उन्हें केरल में मंदिर में हरिजनों के प्रवेश की निगरानी के लिए वायकोम भेजा। सन् 20 और सन् 30 के दरम्यान विनोबा कई दफा जेल गये। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अहिंसक आंदोलन के नेतृत्व के लिए सन् 40 के दशक में उन्हें पांच साल के कारावास की सजा हुई।
कारावास विनोबा के लिए वरदान सरीखा हुआ करता था। सींखचों के पीछे रहकर उन्होंने खूब पढ़ा-लिखा। वहीं उन्होंने ईशावास्य-वृत्ति लिखा और स्थितिप्रज्ञ दर्शन भी। वहीं उन्होंने दक्षिण भारत की चारों भाषाएं सीखी। वेल्लोर जेल में उन्होंने लोकनागरी लिपि का अविष्कार किया। वह सुर्खियों में तब आएष जब महात्मा गांधी ने अफने अहिंसक आंदोलन के लिए ‘पहला सिपाही’ के तौर पर उन्हें चुना। उनके भाई बालकृष्ण भी गांधीवादी थे। बापू ने उन्हें और मणिभाई देसाई को उरली कांचन में उपचार आश्रम के लिए प्रेरित किया। विनोबा ने कुछ समय बापू के साबरमती आश्रम में भी बिताया। जिस कुटिया में वह रहते थे, उसे विनोबा कुटिर के तौर पर सहेजा गया। आजादी के बाद भी वह गांधी पथ से जुड़े रहे और विश्व को ओमतत्सत् तथा जयजगत का मंत्र दिया।
बीती सदी के छठवें दशक में वह फिर सुर्खियों में आए। उनके भूदान-यज्ञ की कहानी सन् 1951 में आंध्र में पोलमपल्ली से शुरू हुई। जब जमींदार रामचंद्र रेड्डी ने विनोबा के आग्रह पर सौ एकड़ जमीन दान की। चौदह बरसों तक वह रोजाना बारह से पंद्रह मील पैदल चलते रहे। लोग उनकी एक झलक के लिए दूर-दूर से पैदल, रेलगाड़ियों और बसों-मोटरों में आते। सन् 1951 से 1970 के दरम्यान लगभग 10 लाख दानवीरों ने भूदान के तहत 42 लाख एकड़ भूमि का दान किया। वह नियमित दो बार सामूहिक प्रार्थना और ध्यान में भाग लेते थे। उन्हें मौन प्रिय था और वह आंतरिक वाणी को वरीयता देते थे। बीथोवेन की भांति वह भी बाद में बधिर हो गये थे। इमर्जेन्सी को अनुशासन-पर्व की उनकी संज्ञा चर्चित रही। नवंबर, सन् 1982 के प्रारंभिक दिनों में उन्होंने अन्नजल त्याग दिया। आठ दिनों के संथारा के उफरांत 15 नवंबर, सन् 1982 को राम-हरि, राम-हरि रटने के बाद उन्होंने अपने सृष्टा से एकाकार होने के लिए प्रयाण किया।
( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )
@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909