प्रस्तुति-सरिता सिंह

इतना तो बल दो

यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ
मेरे पास, परंतु मुझे इतना तो बल दो
समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को
मुझको जब तब लख लेती हो। नीरव गाओ

प्राणों के वे गीत जिन्हें में दुहराता हूँ।
संध्या के गंभीर क्षणों में शुक्र अकेला
बुझती लाली पर हँसता है निशि का मेला
इस की किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ,

एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का
पाया जाता है वैसा हो। बास अनोखी
किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी
भर जाती है, नीरव डंठल बेचारे का

पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है, आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है।

सिपाही और तमाशबीन

घायल हो कर गिरा सिपाही और कराहा।
एक तमाशबीन दौड़ा आया। फिर बोला,
‘‘योद्धा होकर तुम कराहते हो, यह चोला
एक सिपाही का है जिस को सभी सराहा

करते हैं, जिस की अभिलाषा करते हैं, जो
दुर्लभ है, तुम आज निराशावादी-जैसा
निन्द्य आचरण करते हो।’’ कहना सुन ऐसा
उधर सिपाही ने देखा जिस ओर खड़ा हो

उपदेशक बोला था। उन ओठों को चाटा
सूख गए थे जो, स्वर निकला, ‘‘प्यास !’’ खड़ा ही
सुनने वाला रहा। सिपाही पड़ा पड़ा ही
करवट हुआ, रक्त अपना पी कुछ दुख काटा—

‘‘जाओ चले, मूर्ख दुनिया में बहुत पड़े हैं। उन्हें सिखाओ हम तो अपनी जगह अड़े हैं।’’

बिल्ली के बच्चे

मेरे मन का सूनापन कुछ हर लेते हैं
ये बिल्ली के बच्चे, इनका हूँ आभारी।
मेरा कमरा लगा सुरक्षित, यह लाचारी
थी, इन की माँ लाई। सब अपना देते हैं

प्यार हृदय का, वह मैं इन पर वार रहा हूँ।
मन की अप्रिय निर्जनता-शून्यता झाड़ कर
दुलराता हूँ इन्हें। हृदय का स्नेह गाड़ कर
नहीं रखा जाता है। भार उतार रहा हूँ

मन का। स्नेह लुटाने से दूना बढ़ता है।
यह हिसाब की बात नहीं है, इस जीवन का
मूक सत्य है। इसीलिए जो भी कंचन का
करते हैं सम्मान उन्हीं के सिर पर चढ़ता है

मिट्टी का अपमान। कहाँ कब छूटा पीछा,
प्यार करो तो प्यार करो क्या आगा-पीछा।

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