नहीं रहे सुविख्यात गीतकार और पत्रकार रामअधीर, थम गया संकल्प रथ…
सुविख्यात गीतकार और पत्रकार रामअधीर जी ने 8 फरवरी को इस फानी दुनिया से रुखसत कर ली। अपनी शर्तों पर जीने वाले अधीर जी अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते रहे। यही उनकी पहचान भी थी। वरिष्ठ पत्रकार डॉ महेश परिमल से एक किताब के लिए 5 साल पहले उनसे काफी लम्बी बातचीत हुई थी। जिसे एक आलेख के रूप में तैयार किया है। वही आलेख श्रद्धांजलि स्वरूप उन्हें समर्पित है…
डॉ. महेश परिमल
तू न थमेगा कभी, तू न थकेगा कभी
कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ… अग्निपथ…
जिस शख्सियत की बात यहाँ लिखी जा रही है, उस पर अमर कवि हरिवंशराय बच्चन जी की यह पंक्तियाँ बिलकुल सटीक साबित होती हैं। जीवन में संकल्प जरूरी है। छोटे-छोटे संकल्प बड़े-बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये हमारे भीतर आत्मविश्वास भरते हैं। चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रेरणा के ये द्वार जिनके लिए खुल जाते हैं, वो व्यक्ति सफलता-असफलता से ऊपर उठकर आत्मसंतोष एवं स्वाभिमान के साथ जिंदगी के हर पल को जीता है। वह आदमी, जिसके अपने ही अपने न रहे हों, जो अपनों के बीच भी पराया हो। जिसे दूसरों ने समझा हो, दूसरों ने अपनाया हो। उसकी जिंदगी में भला कुछ ऐसा हो सकता है, जिस पर लिखा जा सके! हाँ, अवश्य लिखा जा सकता है। संकल्प के धनी ऐसे व्यक्तित्व से मिलने के बाद उन पर कुछ लिखने के लिए कलम प्रेरित हो रही है। घोर गरीबी में पला-बढ़ा वह शख्स आज 80 साल की उम्र में भी ऊर्जावान है। सारे काम अपने दम पर करता है। इसके बाद भी उसे अपनों से कोई शिकायत नहीं है। शिकायत केवल उनसे हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। उसकी जीवटता देखने लायक है। वह कभी थका नहीं, थमा नहीं, बस चलते जाना ही उसका लक्ष्य है। अपने दम पर उसने कई उपलब्धियाँ हासिल की हैं, पर उन पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। वह कर्मठ है, निष्ठावान है, निर्भीक है, उसने झुकना नहीं सीखा, झुकाने के कई अवसर उसने गँवा दिए। सतत् चलते रहना उसकी प्रवृत्ति है। जीवन के सात दशक पूरे करने के बाद वे अब आठवें दशक की ढलान पर हैं।
जीवन के इस पड़ाव पर नवगीतों पर उनकी एक पत्रिका निकलती है, जिसका नाम है ‘‘संकल्प रथ’’। साहित्य जगत से जुड़ी यह एक श्रेष्ठ पत्रिका है। इस साफ-सुथरी पत्रिका को देखकर ही लग जाता है कि इसमें परिश्रम किया गया है। मेहनत की खुशबू से रची-बसी पत्रिका का सारा काम यानी संपादन से लेकर उसके वितरण तक का काम भी वे स्वयं ही करते हैं। रात-दिन पत्रिका के लिए समर्पित कर देने वाली इस जीवटता के लिए उन्हें ‘‘वन मेन आर्मी‘‘ कहा जा सकता है। भोपाल में अक्सर उन्हें कई साहित्यिक कार्यक्रमों में देखा जा सकता है, बिंदास बोलों के साथ। वे आज भी ऊर्जावान बने हुए हैं, उन्हें देखकर आज के युवा रश्क करने लगते हैं। माँ सरस्वती की कृपा से उनकी लेखनी कमाल की है। लिखते हैं, खूब लिखते हैं। नवगीत में उनका कोई सानी नहीं। यही कारण है कि वे नवगीत के पुरोधा के रूप में पहचाने जाते हैं। न जाने कहाँ-कहाँ से उन्हें बुलाया जाता है। अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं, वे वहाँ जाने की। कभी छत्तीसगढ़, कभी उत्तर प्रदेश, कभी राजस्थान, तो कभी हिमाचल। सफेद बाल, झुर्रीदार चेहरा, लेकिन गजब की याददाश्त। सब कुछ याद है उन्हें। नहीं भूलते वे अपने बचपन के दिन। कभी फुरसत में बैठकर बातें करो, तो जिंदगी की किताब के पन्ने दर पन्ने खुलते चले जाते हैं। बचपन चेहरे की झुर्रियों में ठहरा नजर आता है। पुरानी यादों के मोती ऐसे बिखरते चले जाते हैं कि उन्हें थामने के लिए हमारे पास वक्त कम पड़ जाता है। इन्हीं यादों में उन्हें अपने मित्रों से अधिक अपने दुश्मनों के नाम याद हैं। दुश्मनों के बारे में वे यही कहते हैं कि यदि मेरे दुश्मन न होते, तो मैं आज यह मुकाम हासिल नहीं कर सकता था। मैंने अपना लक्ष्य दुश्मनों की वजह से ही हासिल किया। अपनी सफलता के लिए दुश्मनों का आभारी हूँ। मात्र 12 वीं तक शिक्षा प्राप्त की है, लेकिन अपनी बेबाक टिप्पणी के कारण साहित्य जगत में इन्हें लोग पीठ पीछे ‘‘लेखनी के दुर्वासा’’ भी कहते हैं। सरल इतने कि यदि किसी ने उनकी आलोचना की है, तो उसके लिए वे उसका आभार अवश्य मानेंगे। अपनी पत्रिका में यदि किसी ने पत्रिका की आलोचना करते हुए उन्हें पत्र लिखा है, तो वे बाकायदा उनके पत्र को प्रकाशित करते हुए अपनी सटीक टिप्पणी भी अवश्य लिखेंगे। इससे ही उनकी सरलता का अहसास हो जाता है। इस विरले शख्स का नाम है रामचंद शर्मा यानी राम अधीर। 12 अप्रैल 1935 रामनवमी को नागपुर के पास आर्वी में उनका जन्म हुआ। पिता पंडिताई करते थे, मां नेत्रहीन थीं, इसलिए पूरा परिवार हमेशा फाकेमस्ती में रहा। जीवन संघर्ष विरासत में मिला था, इसलिए आगे चलकर इस खरे सोने को कुंदन तो बनना ही था। जैसे-तैसे 12 वीं पास कर ली और प्राथमिक शाला में शिक्षक हो गए। भीतर से कहीं पढ़ने की लगन थी। कुछ लिख लेते थे। मराठी माध्यम में पढ़ने के बाद भी हिंदी अच्छी तरह से जानते थे। साहित्यिक रूचि से जुड़े हुए थे। इसलिए लेखन से खुद को अलग नहीं रख पाए। अपने क्षेत्र के आसपास की खबरें नागपुर के अखबार युगधर्म में भेजते थे। इस तरह से शिक्षकीय करते-करते पत्रकारिता में भी अपना दखल रखने लगे। हुआ यूँ कि उन्हें युगधर्म के संपादक ने नागपुर बुला लिया, नौकरी के लिए कहा। शिक्षकीय से पत्रकारिता को बेहतर मानते हुए उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत रायपुर में युगधर्म से की। रायपुर में उन्हें बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर जैसे लोगों के साथ काम करने का अवसर मिला। कुछ वर्ष युगधर्म में अपनी सेवाएँ देने के बाद वे रायपुर से ही प्रकाशित नवभारत में आ गए। यहाँ रहकर उन्होंने अपनी कलम खूब चलाई। नवभारत में काम करते हुए वे इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया के सम्माननीय लेखक थे। यदा-कदा उनके आलेख नई दुनिया में प्रकाशित होते रहते। उनकी बेबाक टिप्पणी और लेखकीय क्षमता ने उनके दुश्मनों की संख्या बढ़ा दी। इसी कारण उनका तबादला भोपाल कर दिया गया। इस बीच परिवार बढ़ गया। चार बेटियाँ और एक बेटा। शुरू में तो वे अकेले ही भोपाल आए। काफी मशक्कत के बाद उन्हें नई दुनिया के लेखक के नाते एक सरकारी मकान मिल गया। जहाँ वे अभी तक रह रहे हैं। भोपाल नवभारत में उन्होंने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की, पर यहाँ की राजनीति से वे बच नहीं पाए। फिर भी दस साल उन्होंने वहाँ काट दिए। वे अपने काम में पूरी तरह से सिद्धहस्त थे। उनके अनुभवों को देखते हुए उन्हें जिस तरह का भी काम दिया जाता, वे आसानी से कर लेते। फिर चाहे संपादकीय लिखनी हो, किसी की अनुपस्थिति में उसका काम करना हो, या फिर विशेष अवसरों पर उनसे लेख लिखवाने हो, वे हर तरह के काम को बखूबी अंजाम देते। आखिर ऐसी कौन सी बात थी उनमें कि लोग पीठ पीछे बुराई करते? काफी विचार-विमर्श के बाद पाया कि इसके लिए उनकी साफगोई दोषी है। सच्ची बात बोलते, साफ बोलते, जो लोगों को स्वाभाविक है, तीखी लगती। उनके यही तेवर अन्य साहित्यकारों से उन्हें अलग करते। आलोचना करने में वे कभी पीछे नहीं रहे। जिन्होंने इस आलोचना को सकारात्मकता से लिया, वे आगे बढ़ गए और जिन्होंने इसे गलत समझा, वे कभी सही साबित नहीं हो पाए। उनकी तीखी किंतु सटीक वाणी ने उन्हें कहीं भी टिककर काम करने नहीं दिया। शायद इसलिए उन्होंने उम्र के इस पड़ाव पर आकर अपनी एक पत्रिका निकालने का विचार किया। उनकी पत्रिका ‘‘संकल्प रथ’’ को नवगीत पर देश की बेहतरीन पत्रिका में शामिल किया जा सकता है। इस पत्रिका ने उनकी पहचान एक समर्पित साहित्यकार के रूप में बनाई है। वे इस पत्रिका के केवल संपादक ही नहीं, बल्कि सब कुछ हैं। वे पत्रिका से संबंधित सारा काम स्वयं करते हैं। यह उनका पत्रिका के प्रति समर्पण भाव ही है कि कई संस्थाओं द्वारा वे पुरस्कृत हो चुके हैं। कई संस्थाएँ उन्हें भ्रमण के लिए बुलाती हैं, इसलिए वे हमेशा उन स्थानों का भ्रमण करते हैं, जो साहित्यकारों की पावन भूमि रही है। हाल ही में वे प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा जैसे महान साहित्यकारों की भूमि को प्रणाम कर लौटे हैं। आज यह ‘‘संकल्प रथ’’ केवल संकल्पों से ही नहीं, बल्कि अपनी पूरी ऊर्जा के साथ दौड़ रहा है। लोग कुछ भी कह लें, पर सच यही है कि आलोचनाओं ने उन्हें कभी अपने पथ से डिगने नहीं दिया। वे तो अपने दुश्मनों का आभार मानते हैं कि उन्होंने ऐसा माहौल बनाया, जिससे वे जूझ सकें। विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हार नहीं मानी, इसलिए उनके पथ के काँटे हमेशा दूर होते रहे। एक जुझारू और जिज्ञासु प्रवृत्ति के साथ वे आगे बढ़ रहे हैं। जीवन का हर नया दिन एक नई चुनौती लेकर आता है और वे हर चुनौती का स्वागत पूरी गर्मजोशी के साथ करते हुए आगे बढ़ते हैं। लोग भले ही सफेद बालों और झुर्रीदार चेहरे को देखकर उनके जीवन के इस पड़ाव को संध्या बेला कहते हों, लेकिन उनके लिए तो हर नया दिन नई शुरुआत है। थकना उन्हें आया नहीं, थमना उन्होंने सीखा नहीं, वे तो केवल आगे ही आगे बढ़ना जानते हैं। उनके हौसले बुलंद हैं। आँखों में अनुभवों की चमक है और पाँवों में आत्मविश्वास से भरा जोश है। अपना एक-एक कदम पूरी स्फूर्ति और तेजी के साथ बढ़ाते हुए वे कर्मपथ के पथिक बन आगे बढ़ रहे हैं। आज की युवापीढ़ी को ऐसे जोशीले इंसान से बहुत कुछ सीखना चाहिए। उनके अनुभव जीवन को एक नई दिशा देंगे। संघर्ष की राहों को आसान करेंगे। अनुभव के इस चलते-फिरते संग्रहालय को भोपाल के एम.पी. नगर, पांच नंबर या फिर बाणगंगा चौराहे पर अक्सर देखा जा सकता है। संकल्पों के धनी ‘संकल्प रथ’ के सारथी की जीवटता को प्रणाम। कभी न थकने वाला ये पथिक मानो कह रहा हो –
समय का पहिया कहता मुझसे, आगे बढ़ता चल
हर तूफान से टकराकर, नैया पार लगाता चल।