मुंगेली, मेरी मुंगेली @ मनोज अग्रवाल

मुंगेली में जन्मा, पला-बढ़ा व्यक्ति मुंगेली से बाहर रहकर मुंगेली के बारे में क्या सोचता है, मैं अनुमान नहीं लगा पाता मगर अपने 71 वें पतझड़ में भी मुंगेली छूट जाने का काल्पनिक भय कभी-कभार मुझे बड़ा भयावह लगता है।सामान्यत: शिक्षा पूरी होने के बाद नौकरी मिलने पर मुंगेली से बाहर जाना पड़ता ही है।मगर जिनको बाहर जाने का अवसर नहीं मिलता उनमें से अधिकांश को इस बात का दर्द रहा कि उनको मुंगेली में उनकी योग्यता के अनुसार सही काम नहीं मिला वरना वे अगर बाहर जाते तो तरक्की करके कहां से कहां पहुंच जाते। अपनी बात को साबित करने के लिए मुंगेली से बाहर जाकर सफल हुए अनेक लोगों की लिस्ट है।
मगर मैं तो यही कहूँगा कि अगर मुंगेली जैसी छोटी जगह पर आपका को छोटा-मोटा व्यवसाय है तो मुंगेली से बाहर जाकर नौकरी करना दुनिया का सबसे वाहियात काम है। नौकरी मिलने पर जब मुंगेली छूटता है तो यकीन मानिए कि आपसे बहुत सारी अमूल्य चीजें पीछे छूट जाती है। आपके अपने लोग, आपका परिवेश, आपकी बोली-भाषा, चिर-परिचित बेवाक-सहज-सरल संबोधन आपके दैनिक जीवन से एक ही झटके में गायब हो जाता है।मैंने जाना है कि मुंगेली से बाहर जाकर नौकरी करने वाले लोग अपनी कामकाजी दुनिया में इस कदर व्यस्त हो जाते हैं कि मुंगेली की अनमोल यादें उसके जीवन से सूखने लग जाती है और यदि उनका पारिवारिक सौहार्द्र बाकी है तो दीपावली पर्व हौले से व्यस्त जीवन से बाहर निकलकर परिवार, दोस्त-यार के मिलने से पुरानी यादें निर्झर बहकर मुंगेली से आपको जोड़े रखती है।लेकिन रोजी-रोटी की हाय-हाय की आपाधापी में इस विशिष्ट मुंगेलिहा अंदाज की कमी सदैव अखरती है।
मैंने नौकरी नहीं की।शायद ही कभी एकाध माह मुंगेली से बाहर रहा। मगर आज भी उन मुंगेली की पुरानी टूटी-फूटी गलियों, पुराने स्थानों पर बार- बार जाता हूं, नगर पालिका स्कूल जब कभी भी जाना होता है तो पहली कक्षा के अपने कमरा और बैठने की जगह को निहारता हूं, ये सब मेरी बचपन की स्मृति का अंग हैं।अपने बचपन की जगहों पर अब जाने और बचपन को पुन: जीने का मजा हमारी रगों में, स्मृतियों में रचा-बसा होता है, इसे केवल महसूस किया जा सकता है। यही यादें हमारे-आपके व्यक्तित्व को बनाने में बुनियादी भूमिका निभाती है। ये यादें हमारे साथ ही जाती हैं।
हालांकि सरसरी तौर पर मुंगेली पहले की तुलना में काफी बदल गया है। यहां के युवक-युवतियां पहले की अपेक्षा काफी स्मार्ट हो गयी हैं। मगर मुंगेली को मुंगेलिहा नजर से घूमेंगे तो पुरानी बसाहट की खुशबू आपको आसानी से महसूस हो जाएगी। शहर के पड़ाव चौक से नया बस स्टैंड तक की सूनी सड़क, जिस पर पहले 8 बजे रात में गुजरने में भय लगता था, अब बड़ी-बड़ी दुकानें हो गयी हैं। जिला बनने के बाद बिलासपुर रोड पर करही तक मानों नया मुंगेली बस गया है। मगर पुराने मुंगेली की यादें आप सोनार पारा, मलहापारा में सहज ही महसूस कर सकते हैं।यहां की पुरानी संकरी गलियों में ही पुराने मुंगेली की यादें ,गंदगी से भरी नालियों को देखकर चीन्ह सकते हैं।
मुंगेली की विशेषताओं पर एक पुस्तक लिखने की योजना है जिसमें मुंगेली के गली-मोहल्लों पर विस्तृत रुप में लिखूं। मुंगेली की हर मोहल्ले की अपनी अलग पहचान है,वहां के निवासियों की अलग ही खासियत हैं। प्रभु जाने, यह सब लिख पाऊंगा की नहीं।

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