आपमें रचनात्मक धार है, तो आप बेहतर पत्रकार होंगे: डॉ सुधीर सक्सेना

● हिन्दी की खास पत्रिका ~ ” दुनिया इन दिनों ” के संपादक डाॅ सुधीर सक्सेना से दिनेश चौधरी की बातचीत

दिनेश चौधरी अच्छे लेखक और उत्साही रंगकरमी हैं।अर्से तक पत्रकार भी रहे।अब रेलवे से सेवानिवृत्ति के बाद जबलपुर में रहते हैं।इप्टा से संबद्ध हैं और इन दिनों किताब लेखन में व्यस्त हैं।

डाॅ सुधीर सक्सेना जी ? एक सीधा और सपाट सवाल कि आप जैसे सुशिक्षित, तेजस्वी तथा ओजस्वी व्यक्ति ने पत्रकारिता जैसे नीरस क्षेत्र का चयन किन परिस्थितियों में किया ?
● पत्रकारिता मे मेरा आगमन संयोग नही है। उसे सुविचारित मानिये। हाँ ! यह जरूर है कि इमरजेन्सी ने उसमे उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। यदि इमरजेन्सी नही लगती, तो शायद मै थोड़ा भटकाव के बाद पत्रकारिता या किसी लेखकीय संकाय में जाता । मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कि मुझे पत्रकार ही होना था ।

रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के लेखन मे क्या फर्क महसूस करते हैं ?
● रचनात्मक और पत्रकारीय लेखन मे मै ज्यादा फर्क नहीं देखता, बशर्ते आप पत्रकारिता को संजीदगी से लें और सरोकारों से जुड़े हों। दूसरे मै दोनों को परस्पर पूरक मानता हूँ। यदि आपमें रचनात्मक धार है, तो आप बेहतर पत्रकार होंगे और पत्रकारिता आपको सूचनाओं और संदर्भों से समृद्ध करेगी। पत्रकारिता हमे हमारे समय से जोड़ती है। हमे अद्यतन करती है।
भाषा के स्तर पर आपकी मान्यता ?
● भाषा की तमीज दोनों मे जरूरी है। दोनों की खुराक आपको समूचा माँगती हैं। पत्रकारिता से आप यथार्थोन्मुख होते हैं। सच्चाई से मुठभेड़ दोनों ठौर है। दोनों ठौर जूझना अनिवार्य है। दोनों ठौर हमारी अंतिम प्रतिबद्धता लोक और सत्य के प्रति होती है।
लेखक और पत्रकार की सामाजिक जिम्मेदारी क्या होनी चाहिए ?
● हमारी व्यवस्था मे खोट और खुरंट इतने हैं कि लेखक और पत्रकार की भूमिका प्रतिपक्ष मे होनी है।
आमदनी की द्रष्टि से किस क्षेत्र मे ज्यादा संभावना है ?
● पत्रकारिता मे लेखन के मुकाबले पैसा है, तो वहां फिसलने और रपटने के खतरे भी ज्यादा हैं। वहाँ प्रलोभन है, तो शोषण भी।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे मे आपका द्रष्टि कोण क्या है ?
● इलेक्ट्रानिक मीडिया की दुनिया बॉलीवुड सरीखी है। आडंबर, चकाचौंध, शोषण, षडयंत्र, सौदेबाजी, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, प्रपंच—- सब कुछ वहाँ है। ग्लैमर वहाँ बहुत सारी गड़बड़ियों की जड़ है। हमारे कई मित्र जो प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रानिक मीडिया में गए हैं और वहाँ नाम और नामा कमाया है , चाहते तो वहाँ के अंतर्लोक पर औपन्यासिक कृतियों की रचना कर सकते हैं।
पत्रकारिता की दुनिया में आपका शुरुआती दौर कैसा रहा ?
● बहरहाल बात पत्रकारिता की दुनिया में प्रवेश की थी, तो इमरजेन्सी मे मैं खूब सक्रिय रहा। लघु पत्रिकाओं, पत्रकारों, कवि गोष्ठी आदि

आप शुरुआत से ही प्रतिरोध और प्रतिकार की भूमिका मे किसकी प्रेरणा से आये ?
● लेखकों के संपर्क मे तभी आया । मै तभी प्रतिरोध और प्रतिकार की धारा से जुड़ा। मै आपात विरोधी साहित्य मगाँता और वितरित करता था।
हमने मुक्तिबोध सत्र का आयोजन किया और यदुनाथ थत्ते, विजय तेदुंलकर तथा शरद जोशी को बुलाया। हमने सार्वजनिक तौर पर कविता प्रदर्शनी आयोजित की। उसमे नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, मायकोवस्की, मुक्तिबोध, धूमिल आदि की कविताओं पर उमेश पवनकर और शरद ढोमणे ने रेखांकन बनाए। भाऊ समर्थ, वेणुगोपाल, माहेश्वर तिवारी आदि ने हमारे कार्यक्रमों मे शिरकत की। अनिल कुमार और ओमप्रकाश निर्मल गुपचुप नागपुर आए। हरीश अड्यालकर , प्रकाश दुबे, जयशंकर, विनायक कराड़े, गोपाल नायडू, ताराचंद खांडेकर, विजयशंकर आदि का सक्रिय समूह उभरा। मै सूत्रधार की भूमिका मे था।
लिखने- छपने तथा प्रकाशन का सिलसिला कब से शुरू हुआ ?
● हमने “अभिव्यक्ति” की स्थापना की और इसी नाम की पत्रिका मेरे संपादन में निकली। इसी नाम की पत्रिका के कोटा से निकलने पर उसकी अगली कड़ी के तौर पर कानपुर से ” अभी” का संपादन प्रकाशन हुआ। इन्ही दिनों लघु पत्रिकाओं मे छपने, अखबारों मे लिखने और रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ
पत्रकारिता के लिए प्रशिक्षण भी लिया, आपने अपना गुरु किसे बनाया ?
लोक प्रशासन मे एम ए करने के बाद मैंने 1977 मे नागपुर से बैचलर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री हासिल की। जी टी परांडे, वरखेडकर, माय दलवी, राजेंद्र दर्डा, सत्या सरन जैसे गुरुओं से पत्रकारिता की कला और कौशल के पाठ सीखे।
अगले ही वर्ष मै दैनिक आज से जुड़ा। आकाशवाणी मे रचना पाठ का क्रम तो 1972 मे ही शुरू हो गया था। नवभारत नागपुर मे तब शैलेन्द्र जी, दीन दयाल पुरोहित और महेश गुप्त जैसे पारखी व गुणीजन थे। वे मेरी रिपोर्टों, कविताओं तथा लेखों को न केवल यथावत छापते थे , वरन मेरी पीठ भी थपथपाते थे।
आपातकाल के बाद क्या सिलसिला रहा ?
● आपातकाल की विदाई तक कलम मेरे लिए हथियार बन चुकी थी। मैंने पाया कि वह मेरी जरूरत है । वह दिन और आज का दिन। उसके बिना जीना मुझे गवारा न हुआ। मेरी कलम ही मेरा चेहरा है, वही मेरी पहचान है। मेरा मेरुदंड धरती पर कोई नमन कोण नही बनाता।
देखिये! मैने जीवन मे जो भी फैसले किये, सोच समझ कर किये, होशोहवास में किये । अपने निश्चय पर मुझे कभी मलाल न हुआ, पश्चाताप का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
यानी लेखन आपमे समा गया या फिर आप लेखन के लिए समर्पित हो गये
● लेखन मेरे लिए रोमांस रहा। ईमानदारी से भरा हुआ रोमांस । यथार्थ से मेरी मुठभेड़ रोमांचक रही। जिंदगी में कुछ कर गुजरने के लिए मै जुनूँ को जरूरी मानता हूँ। आप बहुत ज्यादा दुनियादार और हिसाबी किताबी होंगे, तो लेखकीय और पत्रकारीय दायित्व सलीके से न निभा सकेंगे । सुविधा और समझौतों की फिसलपट्टी आपको ले डूबेगी। आप श्रमजीवी पत्रकार रहें और सेठ भी तथा ईमानदार प्रतिबद्ध लेखक भी, यह एक साथ मुमकिन नहीं है। मैने भी ये गल्तियां कीं लेकिन जल्दी ही मुझे अपनी भूल- गल्ती या चूक का एहसास हो गया और मैने तौबा कर ली।
आपने आसमान की बुलंदियों को छूने की कोशिश नही की, या अवसर नही मिले ?
● किसी घराने का सी ई ओ या पत्र पत्रिका का स्वामी होने की बजाय मै लेखक व संपादक रहा आया। मेरे न तो घुटने छिले हैं और न ही मेरे माथे पर निशान हैं, क्योंकि मैने न तो घुटने टेके और न ही किसी ड्योढ़ी पर माथा रगड़ा। मैंने शान का जीवन जिया है, इस कदर शान और सम्मान का कि कोई भी इससे रश्क कर सकता है । मै सामान्य कद का व्यक्ति हूँ । मैंने हमेशा इतने लंबे पाँव चाहे कि वे जमीन पर पहुंच जाएं और ज़मीं पर टिके रहें। मुझे लगता है कि मै अपनी इस कोशिश में कामयाब रहा।
आपका पारिवारिक या बुनियादी अर्थतंत्र किस श्रेणी का रहा ?
● जिंदगी में बहुत तकलीफें रहीं, मुफलिसी रही, दुश्वारियां बनीं रहीं, अपनों ने दगा की, मगर जिंदगी क्या है ? यही जिंदगी है। फिल्मी गीत है ~ गमों का दौर भी आए, तो मुस्करा के जियो ।
तो क्या जीवन इतना ही सहज और सरल होता है ?
● हम सबके भीतर एक नीलकंठ होता है । बस जहर पीने की आदत डालनी होती है । कंठ नीला हो जाता है और जीवन भी गुजरता जाता है। शम्म हर रंग में न जले तो शम्म कैसी ?
आज की पत्रकारिता के बारे मे आपका द्रष्टिकोण क्या है ?
● आज की पत्रकारिता के ” नये दौर ” मे सरोकारों की कमी है। अभ्यास, साहस तथा धैर्य की कमी है। सच पर सनसनी हावी है। कमिटमेंट पर क्रेज भारी है, ऊपर से मालिकों का दखल। उनकी महत्वाकांक्षाएं और कायरता। यह ब्रांडों का दौर है। जो सोने चांदी की कलम के पीछे भाग रहे हैं, उन्हे यह ज्ञात होना चाहिए कि सोने-चाँदी की कलम से कभी कोई कालजयी या श्रेष्ठ रचना नही हुई। लिखने के लिए हमे अच्छा पेन चाहिए। पेन चुनते वक्त हमे यह देखना होता है कि पेन मे स्याही का अविरल प्रवाह हो और वह नुकीला हो। यदि हम किसी खल पात्र के बारे मे लिख रहे हैं, तो नोक दबाने से उसका खून छलछला आना चाहिए। फिजूल मे अपना खून बहाना क्रांतिकारिता नहीं है। क्रांति की जमीन तैयार करना भी क्रांतिकारिता है और निर्भीकता पूर्वक क्रांतिकारी चरित्रों को उभारना और प्रतिक्रांति वादी चरित्रों को बेनकाब करना भी क्रांतिकारिता है
तो क्या हर पत्रकार को एक्टीविस्ट भी होना चाहिए ?
● जरूरी नही कि आप एक्टीविस्ट हों, मगर यह जरूरी है कि आप द्रढतापूर्वक एक्टीविस्टों के साथ खड़े हों। ऐसा करते हुए जरूरी है कि आप एक्टिविस्टों की पड़ताल भी करते चलें और देखें कि नेकी और बदी की मुसलसल जंग मे वह किस तरफ है।
हिन्दी भाषा को सजाने- संवारने और हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में आपका क्या योगदान है ?
● ” माया ” राजनीतिक पत्रिका थी। अपने दौर की जरूरी पत्रिका। वह हिन्दी मे सोचने वालों की पत्रिका थी और उसमे हिन्दी लिखी होती थी। वह न तो अंग्रेजीदां सोच के लोगों की पत्रिका थी और न ही उसकी भाषा अनूदित थी। वहाँ हिन्दी का ठाठ था। हिन्दी का मुहावरा था । हिन्दी पट्टी की धडकनें थीं। अवाम की नब्ज पर माया की उंगली थी।
मै करीब 25 साल उससे जुड़ा रहा। वहाँ अपनी जगह बनाने के बाद मैंने कला, साहित्य – संस्कृति के लिए हाशिया बनाया और लगातार कोशिश की कि हाशिया बड़ा हो। कोशिशें फलीं। माया की भाषा परिष्कृत हुई। किताबों की समीक्षाएं छपीं। लेखकों के इन्टरव्यू भी छपे। “माया” असमय कालकवलित हुई, अन्यथा आगे साहित्य को वहाँ अधिक स्पेस मिलता।
आज के पत्र पत्रिकाओं के कलेवर के बारे मे आपकी टिप्पणी ?
● दिनेश जी ? आप आज के शीर्षस्थ अखबारों को देखिये ~ वहाँ जेनुइन साहित्य के लिए कितना स्पेस है ? उन्हें सियासत और सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम से फुर्सत नहीं है।
आप आश्चर्य करेंगे कि “माया” से संबद्धता के लंबे दौर मे मेरी सृजनात्मकता पर कोई असर नही पड़ा। उलटे उसने मेरी रचनात्मकता को पोसा।मै एक वृहत्तर लोक से जुड़ा। अनुभवों ने मुझे समृद्ध किया।पत्रकारिता मेरे लिए कभी दोयम न रही। मैंने उस उर्वरा दौर मे सब कुछ किया : रिपोर्टिंग, कविताएँ, अनुवाद, वृत्त लेखन यात्रा वृतांत, संस्मरण ••••• मै अनेक माध्यमों से जुड़ा। यदि आपके पास कहने को कुछ है और आप व्यग्र हैं, तो आप खामोश या निष्क्रिय कैसे रह सकते हैं ? विपरीत परिस्थितियाँ बहुधा आपको और अधिक उत्तेजित करतीं हैं। सुविधाएं अच्छी बात है, लेकिन विलासिता तो सृजनशीलता की बैरी है। सृजन परिस्थितियों का मोहताज नहीं है। अभिव्यक्ति रास्ते तलाश लेती है।
संपादको की भूमिका और उनकी वर्तमान स्थिति के बारे मे आपका नजरिया ?
● करीब डेढ़ सौ वर्षों के इतिहास पर द्रष्टिपात करें, तो साफ है कि आज हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया कद काठी के संपादकों से न्यून है। शनैः शनैः संपादक- संस्था का ह्रास हुआ है ।कोई जरूरी नहीं कि आप अच्छे लेखक हैं, तो अच्छे संपादक भी हों। आज हमारे बीच न तो धर्मवीर भारती या कमलेश्वर हैं और न ही डाॅ राजेन्द्र माथुर। संपादक होना गुरुतर दायित्व है, जो आपसे निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ साथ उदात्त और गरिमा पूर्ण होने की भी मांग करता है। गुणी के साथ गुन गाहक होना आसान नही होता। दिक्कत यह है कि हम कस्बे या अधिकतम महानगर तक सीमित हैं। हमारी द्रष्टि एकांगी है। हमने पसंद और नापसंद के खाने बना रखे हैं। हमारी सोच तक पैन- इंडियन नही है। ग्लोबल तो बहुत दूर की बात है। रही सही कसर पूंजी के दखल ने पूरी कर दी है। मीडिया की दुनिया कार्पोरेट वर्ल्ड मे तब्दील हो गयी है। मालिकों को संपादक नही, सी इ ओ चाहिए। मालिकों को पायदान और नसैनियाँ चाहिए। वे न तो सत्ता की ओर पीठ कर खड़े होना चाहते हैं और न ही उसकी आँखों में आँखें डालने की हिम्मत रखते हैं। अब तो समय भी बेढब है। यह वह समय है, जब व्यवस्था को न तो तेवर पसंद है, न असहमति और न ही तार्किक निष्पत्तियाँ। यह ऐसा हिंस्त्र, असहिष्णु और अराजक समय है कि ईमानदार संपादक होना ” तलवार की धार पे धावनो ” सरीखा है।
भाषा के मामले मे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का योगदान ••••?
●इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अस्तित्व मे आने के उपरांत भाषा की ऐसी दुर्गति हुई है कि पूछिये मत। यकीनन हमे डाॅ रघुवीर की नही, बल्कि डाॅ लोहिया की हिन्दी चाहिए। भाषा का चरित्र समावेशी होता है, लेकिन समावेश का अर्थ अपभाषा तो नहीं ? समावेश का अर्थ यह तो नही कि आप भाषा से बलात्कार करें या उसकी हत्या कर दें। टीवी की भाषा सुनकर सिर धुनने का मन करता है। कई बड़े अखबार हिन्दी की जगह हिंग्लिश परोस रहे हैं ।
एक वक्त था कि अखबार किंडरगार्टन या नर्सरी हुआ करते थे। उनसे लेखकों की पौद तैयार होती थी। आज हालात बदतर हैं। अखबारों की भाषा कोफ्त पैदा करती है। खिचड़ी अच्छी होती है, बशर्ते उसमें चावल दाल अधिक हों और कंकड़ कम से कम। कंकडो की बहुलता हो, तो बदहजमी होगी, बदमजगी भी और पथरी भी।
अच्छ भविष्य के लिए आशान्वित हैं ?
दिनेश जी ! परिस्थितियाँ विकल्प पैदा करतीं हैं। समय कठिन है, लेकिन नये रास्ते फूटेंगे। हम समानधर्मी लोग परस्पर जुड़े रहे और समवेत प्रयास किये तो कल कुछ न कुछ सार्थक अवश्य होगा।
जिस समाज के लिए आप लंबे समय से संघर्षरत हैं, उस समाज के लिए कोई संदेश ?
हाँ! मैं अभी चुका नहीं हूँ।आप मेरी ताजा लंबी कविता “अर्द्धरात्रि है यह..” पढें । वह समकाल से जुड़ी कविता है। उसमे हमारे भयावह समय का अक्स है,आशंकाएँ हैं,खौफ है,प्रतिरोध की चेतना है।

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