प्रस्तुति- विजय सिं

ये दिन

ऐसे भी दिन आने थे
अपरिचित सी हो गई हैं गलियाँ
बैठक में पसरा है मौन
सन्नाटों से भर गए हैं स्कूल
सन्देह की दृष्टि से देखता है
आदमी को आदमी.

आफिस की बहुमंजिला इमारत भी
अब कहाँ चहकती है
पसरी रहती है उदासी.

सहकर्मियों -आगुंतकों के
संपर्क में आता हूँ
सो घर आकर बचता हूँ
परिजनों के निकट जाने से
सिमटकर रह जाता हूँ
अपने कमरे में
जिससे आहत होते हैं
माँ और बाऊजी.

रोज करता हूँ
कमरे की सफाई
होले से साफ करता हूँ
नोनू की तीन पहिया साइकिल
पर नहीं चाहता
इन दिनों में
वह ननिहाल आये
फरिश्ते- सा हँसता हुआ.

बार- बार पढ़ता हूँ
से. रा. यात्री की कहानियाँ
डा. आदर्श की लघुकथाएँ
मित्रों के कविता संग्रह.

यदाकदा घूम आता हूँ
फेसबुक पर
जहाँ मिलते हैं
शहंशाह आलम, विजय सिंह, सुमनश्री
विजय पुष्पम, सरिता सिंह, रजत कृष्ण और संजना तिवारी जैसे मित्र
निर्ब्याज स्नेह के साथ
जिनसे कभी मिलना नहीं हुआ.

सुबह-शाम
करता हूँ प्रार्थना
अपने- पराये
सभी रहे स्वस्थ
गुजर जाये
यह कातिलाना दिन
फिर लौट आये
वही मौसम
जिसमें अंजानों के साथ भी
मिला सकूँगा हाथ
दोस्तों की तरह.
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