जिन्हें दो गीतों ने अमर कर दिया
बात गायक कब्बन मिर्जा की- जिनके सिर्फ 2 गानों ने ही उन्हें संगीत प्रेमियों के दिल में बस जाने को मजबूर कर दिया :-
साल था 1983। तारीख16 सितंबर । हिंदी सिनेमा के पर्दे पर फ़िल्म “रजिया सुल्तान” रिलीज हुई।
असल मे कब्बन मिर्जा का ताल्लुक लखनऊ से था। वो ‘विविधभारती’ में उदघोषक नहीं बल्कि ‘प्रोग्राम असिस्टेन्ट’ थे। और आवाज़ खुरदुरी होने की वजह से प्रोग्राम भी करते थे। ‘संगीत सरिता’ कार्यक्रम से वो शुरूआत से जुड़े रहे थे। मुहर्रम में मर्सिए वग़ैरह भी वे गाते थे।
‘विविध भारती’ में उनका सबसे अहम योगदान रहा ‘संगीत सरिता’ का शुरूआती स्वरूप और उसे लोकप्रियता देना, जिसमें पहले किसी राग के बारे में बताया जाता, फिर उसका चलन, और फिर उस पर आधारित शास्त्रीय और फिल्मी रचना। ये क्लासिकल स्वरूप उन्हीं ने बनाया। बाद में इसे इंटरव्यू बेस्ड कर दिया गया।
कब्बन मिर्जा अस्सी के दशक के दौरान विविध भारती से रिटायर हुए। और फिर मुंबई के उपनगर मुंब्रा में रहते रहे। उनके एक (या शायद दोनों) बेटे अभी भी सऊदी अरब के एक मशहूर रेडियो स्टेशन से जुड़े हैं। इन्टरनेट पर उनका जन्म 1937-38 बताया गया है। उन्हें गले का कैन्सर हो गया था पर उनकी मृत्यु के बारे में ठीक-ठीक कहीं कुछ लिखा नहीं गया है, पर कुछ वेबसाइट में ‘Late Kabban Mirza’ कह कर उल्लेख है।
अब सवाल यह आया कि फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के इन दोनो ग़ज़लों को गाने के लिए कब्बन मिर्ज़ा कैसे चुने गये। ‘रज़िया सुल्तान’ फ़िल्म दिल्ली की एकमात्र महिला सुल्तान रज़िया सुल्तान (1205-1240) के जीवन पर आधारित थी और इसमें शामिल है उनके ऐबिसिनियन ग़ुलाम जमाल-उद्दीन याकुत (धर्मेन्द्र द्वारा निभाया चरित्र) के साथ प्रेम-सम्बन्ध भी। जमाल एक बहुत बड़ा सिपहसालार है, जो जब भी कभी वक़्त मिलता है, थोड़ा गा लेता है अपनी मस्ती में, पर वो कोई गायक नहीं है।
ऐसे किरदार के पार्श्वगायन के लिए कमाल अमरोही ने ख़य्याम के सामने अपनी फ़रमाइश रख दी कि उन्हें ये दो ग़ज़लें किसी ऐसे गायक से गवानी है जो गायक नहीं है पर थोड़ा बहुत गा लेता है। ऐसे में ख़य्याम साहब के लिए बड़ी कठिनाई हो गई कि उन्हें कोई इस तरह का गायक न मिले।
अब यह हुआ कि पूरे हिन्दुस्तान से 50 से भी ज़्यादा लोग आये और सब आवाज़ों में यह हुआ कि लगा कि वो सब मंझे हुए गायक हैं। किसी की भी आवाज़ में वह बात नज़र नहीं आयी जिसकी कमाल अमरोही को तलाश थी।
ऐसे ही कब्बन मिर्ज़ा भी आये अपनी आवाज़ को आज़माने। ख़य्याम, उनकी पत्नी और गायिका जगजीत कौर और कमाल अमरोही, तीनो ने उन्हें सुना। जब कब्बन मिर्ज़ा से यह पूछा गया कि उन्होंने कहाँ से गायन सीखा, तो उनका जवाब था कि उन्होंने कहीं से नहीं सीखा। किस तरह के गाने आप गा सकते हैं, पूछने पर कब्बन साहब लोकगीत सुनाते चले जा रहे थे। वो तीनों मुश्किल में पड़ गये क्योंकि उनकी ज़रूरत थी एक ऐसे शख्स की जो गायक न हो पर ग़ज़ल गा सके!
अत: कब्बन मिर्ज़ा भी रिजेक्ट हो गये। पर अगली सुबह कमाल साहब का ख़य्याम साहब को टेलीफ़ोन आया कि आप फ़्री हैं तो अभी आप तशरीफ़ लायें। नाश्ता उनके साथ हुआ। नाश्ता हुआ तो कमाल साहब कहने लगे कि रात भर मुझे नींद नहीं आई, यह जो आवाज़ है जो हमने कल सुनी कब्बन मिर्ज़ा की, यही वह आवाज़ है जिसकी तलाश मैं कर रहा था। ख़य्याम चौंक कर बोले, “कमाल साहब, लेकिन उनको गाना तो आता नहीं!” तो कमाल अमरोही ने ख़य्याम का हाथ पकड़ कर बोले, “ख़य्याम साहब, आप मेरे केवल मौसीकार ही नहीं हैं, आप तो मेरे दोस्त भी हैं। प्लीज़ आपको मेरे लिए यह करना है, मुझे इन्ही की आवाज़ चाहिये।”
फिर क्या था, शुरू हुई कब्बन मिर्ज़ा की संगीत शिक्षा।ख़य्याम साहब ने उन्हे तीन-चार महीने स्वर और ताल का ज्ञान दिलवाया और उसके बाद गाने की रेकॉर्डिंग शुरू हुई। अक्सर यह होता है कि रेकॉर्डिंग के वक़्त म्युज़िक डिरेक्टर रेकॉर्डिंग करवाता है अपने रेकॉर्डिस्ट से, और असिस्टैण्ट जो होते हैं वो ऑरकेस्ट्रा संभालते हैं। पर उस दिन क्योंकि कब्बन मिर्ज़ा नये थे, गा नहीं पा रहे थे, इसलिए ख़य्याम साहब ने जगजीत कौर को भेजा रेकॉर्डिंग पर, असिस्टैण्ट को भी अन्दर भेजा, और ख़ुद कंडक्ट किया। इस तरह से रेकॉर्ड हुआ कब्बन मिर्ज़ा का गाया “तेरा हिज्र मेरा नसीब है…”।
“तेरा हिज्र मेरा नसीब है…” ग़ज़ल में कुछ ऐसी बात है कि जिसे एक बार सुनने के बाद एक और बार सुनने का मन होता है। कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में एक ऐसा आकर्षण है कि जो सीधे दिल में उतर जाता है।
यह उपहास ही है कि ऐसी मोहक आवाज़ के धनी कब्बन मिर्ज़ा गले के कैन्सर से आक्रान्त हो कर इस दुनिया से चल बसे। पर जैसा कि इस ग़ज़ल की दूसरी लाइन में कहा गया है कि “मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे साथ है”, वैसे ही कब्बन मिर्ज़ा भले इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनकी गायी हुई ‘रज़िया सुल्तान’ की इन दो ग़ज़लों ने उनकी आवाज़ को अमर कर दिया है, जो हमेशा हमारे साथ रहेगी।
बस इतनी सी थी यह दास्तान। लीजिए, कब्बन मिर्जा की आवाज़ में यह बेहतरीन गाना आप भी सुनिए।ख़य्याम साहब का दिव्य जादुई संगीत, दिल की अंतिम सफ़हों को छू लेने वाली बांसुरी और संतूर की शुरूआती धुन और फिर रबाब की तरंगें । इन वाद्य यंत्रों के बीच आती है दिल को झकझोर देने वाली क़ब्बन मिर्ज़ा की आवाज़।कब्बन साहब की अद्भुत, गरही और कड़क आवाज़ जिस गहराई से निकली, संगीत प्रेमियों के दिल में उसी गहराई तक पहुंची भी । फिल्म – राजिया सुल्तान । गीत के बोल तेरा हिज्र मेरा नसीब है… आवाज कब्बन मिर्ज़ा की । गीतकार निदा फाजली । संगीतकार खय्याम । नीचे दिए लिंक को टच करें-
https://youtu.be/g2ePtPk6qeI?si=-ctnnfPHy3hchAzx
(साभार)