ब्रिटिश इंडिया की पहली ‘डॉक्टरनी’ @ डॉ. सुधीर सक्सेना

दुनिया इन दिनों
ब्रिटिश इंडिया की पहली ‘डॉक्टरनी’
डॉ. सुधीर सक्सेना

एक तो विदेशी दासता और फिर वर्जनाओं का घटाटोप, स्त्रियों के लिए तकलीफें और भी ज्यादा थीं। उनके पांवों में अदृश्य सांकलें थीं और विधि-विधान प्रतिकूल, रूढ़ियां ही समाज की पहचान थी। ऐसे में बंबई प्रेसीडेंसी में ठाणे के कुलीन ब्राह्मण परिवार में एक कन्या ने जन्म लिया। किसे पता था कि 31 मार्च, सन् 1865 को जनमी गणपतराव अमृतेश्वर जोशी की यह पुत्री सर्वथा नया इतिहास रचेगी और उसका नाम चिकित्सा शास्त्र में एक चमकीले सितारे की तरह दिपदिपाता रहेगा।
पिता गणपतराव ने अपनी बेटी का नामकरण किया यमुना, किन्तु वह जानी गयी आनंदी के नाम से। आनंदी यानी आनंदी बाई। मात्र नौ वर्ष की थी कि पिता ने प्रचलित परिपाटी के अनुरूप उसका विवाह गोपालराव से कर दिया। आयु के मान से गोपालराव आनंदी से बीस वर्ष बड़े थे। बालिका वधु आनंदी 14 वर्ष की आयु में ही मां बन गयी, लेकिन नवजात शिशु मात्र दस दिनों में ही चल बसा। किशोरी मां के लिए यह वज्रघात था। यह दु:खद घटना जोशी-दंपत्ति के लिए जीवन में मोड़ सिद्ध हुई और नवबोध का प्रसंग भी। मर्माहत आनंदी ने तय कर लिया कि वह डॉक्टर बनेगी और असमय मौतों को यथासाध्य रोकेगी।
आनंदी बाई गोपाल जोशी का यह संकल्प एकाकी प्रण न था। आनंदी के इस संकल्प में पति गोपाल की सहमति थी। गोपाल का अब एक ही व्रत था और वह व्रत था पत्नी आनंदी को डॉक्टर बनाना। गोपाल निरक्षर या मूढ़ न था। उसी ने यमुना का नामकरण किया था आनंदी। वह कल्याण में डाक-मुंशी या लिपिक था। वहां से उसका तबादला अलीबाग हुआ और फिर अंतत: कोल्हापुर। गोपाल प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति था। वह स्त्री शिक्षा और महिला उत्थान का हिमायती था।

आनंदी प्रसंगवश पंडिता रमाबाई सरस्वती की रिश्तेदार थी और गोपाल के मन में पंडिता के प्रति बड़ा सम्मान था। सुविधाओं के अभाव में नवजात शिशु की मृत्यु ने जोशी दंपत्ति को झकझोर दिया था। गोपाल ने आनंदी को मिशनरी स्कूल में भर्ती कराने की जी-तोड़ कोशिशें कीं, लेकिन बात बनी नहीं। फलत: आनंदी को लेकर गोपाल कलकत्ते चला आया। वहीं आनंदी ने अंग्रेजी और संस्कृत लिखना-पढ़ना सीखा।
आनंदी अब नयी देहलीज पर थी, लेकिन औषधि-विज्ञान के संकाय में दाखिला आसां न था। कहते हैं, जहां चाह, वहां राह। गोपाल ने विख्यात मिशनरी रॉयल वाइल्डर को खत लिखा, जिसमें पत्नी की अध्ययन विषयक अभिरूचि के साथ अपने लिए अमेरिका में योग्य नौकरी की याचना थी। युक्ति काम कर गयी। वाइल्डर ने गोपाल का पत्र अपने प्रिंस्टन्स मिशनरी रीव्यू में छाप दिया। यह पत्र रोसेल, न्यूजर्सी-निवासिनी थियोडीसिया कार्पेन्टर ने तब पढ़ा, जब वह डेंटिस्ट की प्रतीक्षा कर रही थी। पत्र से द्रवित थियोडीसिया ने आनंदी को खत लिखा और मदद का वायदा किया। थियोडीसिया और आनंदी अब नये रिश्ते में बंध गये थे। थियोडीसिया ‘आंटी’ थी और आनंदी उसकी ‘नीस।’ अमेरिकी थियोडीसिया अब अपनी हिन्दुस्तानी भतीजी की अमेरिका में मेजबानी के लिए तत्पर थी।
जोशी-दंपत्ति का कलकत्ता प्रवास आसान नहीं था। आनंदी प्राय: रूग्ण रहती थी। उसे निरंतर सिरदर्द, जब-तब बुखार और दुर्बलता की शिकायते थीं। कभी-कभार उसकी सांस भी उखड़ जाती थी। ममतालु थियोडीसिया ने उसके लिए अमेरिका से दवाएं भेजीं। सन् 1883 का साल था कि गोपाल का तबादला श्रीरामपुर हो गया। खराब सेहत के बावजूद गोपाल ने आनंदी को पानी के जहाज से अकेले अमेरिका भेजने का फैसला किया। आशंकाओं के घटाटोप के बीच गोपाल ने आनंदी को समझाइश दी कि उसे स्त्रियों के लिए रूपहली नज़ीर बनकर उभरना है। संकल्प दृढ़ था, किन्तु परिस्थितियां विषम। समाज जोशी-दंपत्ति के फैसले के खिलाफ था। लड़कियों को पश्चिमी-शिक्षा उसकी मान्यताओं के खिलाफ थी। ऐेसे प्रतिकूल वातावरण में थोरबोर्न युगल, जो स्वयं फिजीशियन थे, देवता बन कर उभरे। उन्होंने वूमेन्स मेडिकल कॉलेज, पेनसिल्वानिया में अर्जी भेजने का परामर्श दिया। उन्हीं दिनों आनंदी ने श्रीरामपुर कॉलेज के सभागार में लोगों को संबोधित किया। अपने व्याख्यान में उसने उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने की वजह और अपनी व अपने पति की अवधारणा का उल्लेख किया। उसने भारत में महिला डॉक्टरों की आवश्यकता निरूपित करते हुए कहा कि महिला रोगियों की सेवा-सुश्रुषा महिला चिकित्सक ही बेहतर तरीके से कर सकेंगी। आनंदी के कहे का श्रोताओं और अन्य पर अच्छा प्रभाव पड़ा। प्रगतिशीलों और सुधारवादियों ने उसके साहस को मुक्तकंठ सराहा। उसके व्याख्यान को चतुर्दिक ख्याति मिली और उसे तमाम लोगों से वित्तीय सहायता भी मिली। कल्पना कीजिये कि सन् 1883 में दिये इस व्याख्यान के पीछे कितना अदम्य साहस और आत्मविश्वास काम कर रहा होगा? 18 वर्ष की एक युवती समाज को उसकी अनुदार वृत्ति के लिए लानतें भेज रही थी। उसका उद्बोधन पर ‘उपदेश, कुशल बहुतेरे’ की याद दिलाता है।
आनंदी ने सिर्फ कहा ही नहीं, वरन स्वयं नवाचार प्रस्तुत भी किया। गोपाल को किसी भी स्तर पर गफलत गवारा न थी। एकबारगी प्रतीत होने पर कि आनंदी शिथिलता बरत रही है, वह स्वयं अमेरिका के लिए रवाना हो गया। जब वह फिलाडेल्फिया पहुंचा. उसने पाया कि उसकी पत्नी आनंदी मेडीसिन का पाठ्यक्रम पूरा कर चुकी है। अब वह आनंदी गोपाल जोशी नहीं, डॉक्टर आनंदी गोपाल जोशी थी, ब्रिटिश इंडिया की पहली डॉक्टरनी।
आनंदी कलकत्ते से जलपोत से न्यूयार्क गयी थी। थारबोर्न परिवार से परिचित दो अंग्रेज मिशनरी महिलाएं उसके साथ थी। जून 1883 में आनंदी के अमेरिका पहुंचने पर थियोडीसिया ने उसकी आगवानी की। उसी के कहने पर आनंदी ने फिलाडेल्फिया में पेनसिल्वानिया-स्थित वूमेन्स मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए अर्जी भेजी। यह संस्थान विश्व में महिला-चिकित्सा का दूसरा उपक्रम था। कॉलेज के डीन राशेल बोडले ने उसे सहर्ष प्रवेश दिया। आनंदी की उम्र तब 19 साल थी। उसने सीखने में कोई कोरकसर न उठा रखी। चिकित्सा इतिहास में एक नयी इबारत लिखी जा रही थी। मौसम के थपेड़ों और मनपसंद आहार नहीं मिलने से उसकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। वह तपेदिक से ग्रस्त हो गयी। रोग और मनोबल के द्वन्द्व में मनोबल की जीत हुई। मार्च, सन 1886 में उसे एमडी सहित स्नातक की उपाधि मिली। उसकी थीसिस का विषय था-‘आॅक्सट्रेटिक्स अमंग द आर्यन हिन्दूज।’ उसके ग्रेजुएशन पर प्रसंग एक संग घटित हुए। एक तो राशेल के न्यौते पर इंग्लैंड से पंडिता रमाबाई दीक्षांत समारोह में विशोष न्यौते पर इंग्लैंड से पेनसिल्वानिया आईं। दूसरे मलका विक्टोरिया ने बधाई देते हुए आनंदी को प्रशस्ती पत्र भेजा। इतिहास रचा जा चुका था। सन 1886 के अंत में डॉ. आनंदी भारत लौटीं तो उनका शाानदार और भावभीना स्वागत हुआ। कोल्हापुर रियासत ने उसे एल्बर्ट एडवर्ड हास्पिटल के महिला वार्ड का फिजीशियन-इन चार्ज नियुक्त किया। सम्मान अपनी जगह था और सेहत थी कि बिगड़ती जा रही थी। कमजोरी थमने का नाम न ले रही थी। अमेरिका से आईं दवाएं भी निरर्थक रहीं। 26 फरवरी, 1886 को उसने सदा के लिए आंखें मूंद लीं। समूचे भारत में शोक की लहर दौड़ गई। उसकी भस्म थियोडीसिया को भेजी गई, जिसने उसे न्यूयार्क में पुग्कीटसी स्थित पारिवारिक रूरल सीमेट्री में सुरक्षित रखवा दिया। वहां उत्कीर्ण है कि आनंदी विदेश में शिक्षा और मेडिकल डिग्री हासिल करने वाली पहली हिन्दू ब्राह्मण बाला एवं पहली भारतीय महिला थी। अगले ही साल कैरोलीन वेल्स हीली डाल ने उसकी जीवनी लिखी। उस पर कई किताबें आईं, टीवी धारावाहिक बना और उसके नाम पर अवार्ड घोषित हुआ। उसके जीवन पर मराठी में फिल्म बनी और गुजराती में नाटक खेला गया। यही नहीं शुक्र ग्रह पर एक क्रेटर का नाम भी उसके नाम पर रखा गया।

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि, लेखक- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

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