तिल मात्र भी परिग्रह नहीं रखना ही दशलक्षण का नवमां धर्म “उत्तम आकिंचन्य धर्म” है

परिग्रह सब पापों की जड़ होने से सबसे बड़ा पाप है

कोरबा। ज्ञानानंद स्वाभावी आत्मा को छोड़कर किंचित मात्र भी पर पदार्थ तथा पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह, राग, द्वेष के भाव आत्मा के नहीं है। ऐसा मानना और ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा के आश्रय से उनसे विरत होना, उन्हें छोड़ना ही "उत्तम आकिंचन्य धर्म" है। आकिंचन्य सबसे बड़ा धर्म है। जगत में जितनी भी हिंसा, झूठ, चोरी व कुटिल कार्य होते हैं, अथवा परिग्रह प्रवृत्तियां देखी जाती हैं। उन सबके मूल में परिग्रह ही है। परिग्रह सब पापों की जड़ होने से सबसे बड़ा पाप है।आकिंचन्य धर्म को धारण कर सभी प्राणी पूर्ण सुख को प्राप्त करें ।महावीर स्वामी ने ऐसा कहकर पवित्र भावना के साथ विराम लिया है। उक्त विचार श्री दिगंबर जैन मंदिर में पर्यूषण पर्व के दौरान धर्म के दशलक्षण धर्मौं में नवमां धर्म "उत्तम आकिंचन धर्म " पर जयपुर से पधारे पंडित श्री रोहित शास्त्री जी ने अपने वक्तव्य दिए उन्होंने बताया कि आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य को दश धर्मौं का सार एवं चतुर्गति दुखों से निकलकर मुक्ति में पहुंचा देने वाला महान धर्म है। यह पर पदार्थ और उनके लक्षण से उत्पन्न होने वाले चिद्वविकारों को  अपना नहीं मानना ,नहीं जानना और उनमें लीन नहीं होना, आकिंचन्य है। यदि स्वलीनता ब्रह्मचर्य है, तो पर में एकत्व बुद्धि और लीनता का अभाव आकिंचन्य है। अत: जिसे अस्ति से ब्रह्मचर्य धर्म कहा जाता है। उसे ही नाश्ति से आकिंचन्य धर्म कहा जाता है।
 जिस प्रकार क्षमा का विरोधी क्रोध ,मार्दव का विरोधी मान है। उसी प्रकार आकिंचन्य का विरोधी परिग्रह है । परिग्रह 24 प्रकार के होते हैं। जिनका त्याग मुनिराज करते हैं ।और उत्तम आकिंचन्य धर्म के धारी होते हैं। आकिंचन्य धर्म ,क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य,रति शोक, भय, जुगुप्सा,स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद ,सभी कषायों के अभाव का नाम है ।अतः अकिंचन्य धर्म , सबसे बड़ा धर्म है। परिग्रह सभी पापों की जड़ होने से सबसे बड़ा पाप है ।और आकिंचन सबसे बड़ा धर्म है। सर्व कषायों और मिथात्व के अभाव रूप होने से आकिंचन्य सबसे बड़ा धर्म है ।इस उत्तम आकिंचन्य धर्म को धारण कर सभी प्राणी पूर्ण रूप से सुख को प्राप्त करते हैं।
     इस प्रकार 10 लक्षण के नवमे धर्म उत्तम आकिंचन धर्म के बारे में शास्त्री जी ने अपनी उत्तम विचार प्रकट किये। जिसे उपस्थित समस्त श्रोताओं ने मंत्र मुक्त होकर अपने जीवन में धारण करने का संकल्प लिया।श्री दिगंबर जैन मंदिर परिसर में  रोज की तरह प्रातः 7:00 श्री महावीर स्वामी जी को विराजमान श्री प्रमोद जैन ने किया एवं श्री जी पर छत्र चढ़ाया। भगवान महावीर स्वामी का स्वर्ण कलश से प्रथम अभिषेक दिनेश जैन , पारस जैन ने किया एवं प्रथम शांतिधारा भी दिनेश जैन, पारस जैन ने की एवं द्वितीय शांतिधारा अखिलेश जैन आदि जैन ने की। श्रीजी की महाआरती रेखा जैन, साक्षी जैन, दिनेश जैन, पारस जैन द्वारा की गई। श्रीजी पर श्री रोहित जैन, राजेश जैन ने चंवर ढुराया। दोपहर मंदिर की में शांतिविधान किया गया। जिसमें अजीत लाल जैन , जेके जैन, नेमीचंद जैन, दिनेश जैन,संजय जैन, मनीष जैन,वीरेंद्र जैन एवं जैन समाज की समस्त महिलाएं पुरुषों ने भाग लिया।उक्ताशय की जानकारी जैन मिलन समिति के उपाध्यक्ष दिनेश जैन ने दी।
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