“मोह, राग, द्वेष और विषय कषायों को छोड़ना ही उत्तम त्याग धर्म है”

कोरबा। जो जीव संपूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है। उसका "त्याग धर्म" होता है। त्याग कषायों का होता है। दान परिग्रह का होता है। उक्त विचार श्री दिगंबर जैन मंदिर में जैन समाज के चल रहे पर्यूषण पर्व पर धर्म के दशलक्षणों में आठवां धर्म "उत्तम त्याग धर्म" पर जयपुर से पधारे पंडित श्री रोहित शास्त्री जी ने व्यक्त किए।उन्होंने बताया कि सामान्यत: तो दान को ही लोग त्याग समझते हैं। त्याग के नाम पर दान के ही गीत गाए जाते हैं। जबकि जिनागम में दान को भी त्याग कहा जाता है ।दान देने की प्रेरणा भी भरपूर दी गई। दान की भी अपनी उपयोगिता है। और महत्व भी है। लेकिन गहराई से विचार किया जाए ,तो दान और त्याग में महान अंतर है। दो भिन्न-भिन्न चीज प्रतीत होती हैं। क्योंकि त्याग धर्म है ,और दान पुण्य है ।त्यागियो के पास रंच मात्र भी परिग्रह नहीं होता है। जबकि दानियों के पास ढेर सारा परिग्रह होता है।
   जैन मिलन समिति के उपाध्यक्ष श्री दिनेश जैन ने बताया ।यद्यपि त्याग शब्द निवृत्ति सूचक है। जबकि त्याग में वाह् और अभ्यंतर परिग्रह का त्याग होता है। तथापि त्याग धर्म में निज शुद्धात्मा का ग्रहण अर्थात शुद्धोपयोग और शुद्ध परणति भी शामिल है ।त्याग में द्रव्यों का नहीं, बल्कि अपनी आत्मा में पर द्रव्यों की प्रति होने वाले मोह- राग- द्वेष का होता है। क्योंकि पर द्रव्य तो अलग ही है। उनका तो आज तक ग्रहण ही नहीं हुआ है। उन्हें अपना जाना है, माना है ,उनसे मोह- राग- द्वेष किया है। अत: उन्हें अपना जानना, मानना,( दर्शन मोह) एवं उनके प्रति मोह- राग- द्वेष (चरित्र मोह) छोड़ना है। इस प्रकार से यही कारण है कि वास्तविक त्याग "पर" मैं नहीं, अपने में, अपने ज्ञान में होता है।त्याग, ज्ञान में ही होता है अर्थात "पर "को "पर "जानकर उससे ममत्वभाव तोड़ना ही त्याग है। इसलिए त्याग, वस्तु को अनुपयोगी, अहितकारी जानकार किया जाता है। जबकि दान उपयोगी और हितकारी वस्तुओं का दिया जाता है। उपकार के भाव से अपनी उपयोगी वस्तु को पात्र जीव को दे देना ही दान है ।जो पैसा जिस उद्देश्य से प्राप्त हुआ है। उसी में लगाना चाहिए। जिस उद्देश्य से, जिस कार्य के लिए उसे दान दिया था। वह हो रहा है या नहीं यह भी ध्यान रखना जरूरी है ।दान में "परोपकार" का भाव मुख्य रहता है और त्याग में "आत्महित"का। दान "व्यवहार धर्म "है ।और त्याग "निश्चय धर्म" है। दान चार प्रकार का होता है। आहार दान, औषधी दान ,ज्ञान दान और अभय दान आदि। 
   इस प्रकार से दशलक्षण पर्व के आठवें धर्म "उत्तम त्याग" के बारे में पंडित जी ने बहुत अधिक जानकारी दी। जिससे समस्त श्रोतागण मंत्र मुग्ध होकर सुनते रहे। प्रातःकाल 7:00 बजे मंदिर जी के अंदर श्री महावीर स्वामी जी की शांति धारा अनुज जैन, नवोदित जैन ने की। मंदिर परिसर में श्री 1008 पारसनाथ भगवान को विराजमान श्री मुकलेश जैन, नवोदित जैन ने किया। श्रीजी पर छात्र श्री प्रमोद जैन ने चढ़ाया।आचार्य श्री जी पर दीप-प्रज्वलन श्री राहुल जैन, मयूरी जैन, प्रक्षाल जैन ने किया। तत्पश्चात श्रीजी पर स्वर्ण कलश से प्रथमअभिषेक  डॉ प्रदीप जैन एवं प्रिंस जैन,आकांक्षा ने किया। तत्पश्चात अभिषेक नेमीचंद जैन,प्रमोद जैन, विशाल जैन, शीलचंद जैन, राहुल जैन, मनीष जैन, राजेश जैन, भागचंद जैन, देवेंद्र जैन ने किया।प्रथम शांति धारा श्री ओमप्रकाश जैन, चक्रेश जैन, चंद्रेश जैन दीपेशजैन ने की। द्वितीय शांतिधारा श्री प्रमोद जैन ने की। उसके बाद श्रीजी की महा आरती श्री जेके जैन,ममता जैन, महीप जैन, नूपुर जैन परिवार ने की।श्रीजी पर चंवर श्री प्रमोद जैन ने ढुराया। श्री महावीर भगवान की बेदी पर शांतिधारा राहुल जैन गोपालपुर ,सुधीर जैन, मनीष जैन बालको ने की।शाम को संगीतमय आरती,भजन का कार्यक्रम किया गया। उसके बाद रात्रि में बच्चों एवं बड़ों की धार्मिक हौजी प्रतियोगिता रखी गई । जिसमें बच्चों- महिलाओं और पुरुषों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। जिसका जैन समाज के सभी श्रोताओं ने आनंद लिया। उक्त कार्यक्रम में जैन समाज के समस्त पदाधिकारी संरक्षक पदाधिकारी गण एवं समाज के सभी सदस्य उपस्थित रहे। इस प्रकार उक्त आशय की जानकारी जैन मिलन समिति के उपाध्यक्ष दिनेश जैन ने दी।
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